मेरी पर्वतीय यात्रा– आत्‍मकथात्‍मक निबंध ( My Mountain Journey – Autobiographical Essay )

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मेरी पर्वतीय यात्रा ( My Mountain Journey – Autobiographical Essay )

पर्वतीय अर्थात् पहाड़ों की यात्रा करने का अपना अलग ही महत्त्व एवं आनन्द हुआ करता है । कुछ लोग तो प्रकृति-दर्शन के लिए पहाड़ों की यात्रा किया करते हैं, जबकि कुछ लोग मनोरंजन तथा आनन्द प्राप्त करने के लिए ! अमीर लोग गर्म प्रदेशों की झुलसा देने वाली लू और गर्मी से बचाव के लिए दो-एक महीने ठण्डे पहाड़ों पर बिता आया करते हैं। मैंने भयानक सर्दी के दिनों में भी लोगों को टिकट कटा कर पहाड़ों की तरफ भागते हुए देखा है । ऐसे लोगों का उद्देश्य शायद बर्फ गिरने ( Snow fall) का दृश्य देखना ही हुआ करता है । जो हो, जिसकी जैसी भावना और रुचि रहती है, वह उसी के अनुसार आचरण किया करता है, यह मानव-स्वभाव का एक स्पष्ट सत्य हैं!

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पिछले वर्ष मैंने भी पहाड़ी स्थल की यात्रा की थी। इस यात्रा पर जाने के मेरे स्पष्ट रूप से दो उद्देश्य थे। एक तो मैं पहाड़ों पर प्रकृति का रूप देखना और उनका आनन्द लेना चाहता था, दूसरे, मैं यह जानना चाहता था कि जो वहाँ के मूल निवासी होते हैं, हमेशा वहीं रहते हैं, उन लोगों का अपना जीवन किस प्रकार का हुआ करता है । सो मैंने अधिक दूर के ही नहीं, दिल्ली में सबसे निकट पड़ने वाले पर्वतीय स्थल मसूरी की यात्रा करने की योजना बनायी। मेरे तीन-चार और सहपाठी मित्र भी मेरे साथ चलने को तैयार हो गये । स्कूलों-कॉलेजों में छुट्टियाँ थीं ही, अतः घर वालों ने भी हमे आज्ञा दे दी ! एक निश्चित दिन हम लोग दिल्ली से सीधी मसूरी जाने वाली बस पर सवार हो गये। दिल्ली की भीड़-भाड़ को धीरे-धीरे पार करने के बाद हमारी बस मसूरी जाने के लिए देहरादून की राह पर भाग चली ! आरम्भ में, कहना चाहिए कि देहरादून की वादी में प्रवेश करने से पहले तक का रास्ता दिल्ली, हरियाणा, उत्तर-प्रदेश के आम बस मार्गों के समान ही रहा। कहीं रूखे-सूखे मैदान, कहीं हरे-भरे खेत, कहीं कुछ वृक्षों के साये और कहीं एकदम नंगी सड़क । उत्तरप्रदेश में सड़कों के आस-पास उगे, दूर तक चले गये गन्ने के खेत अवश्य कुछ आकर्षक लगे। नहीं तो बस सपाट दृष्टि से इधर-उधर देखते, आपस में गप्पें लगाते हुए बस के साथ-साथ हम बढ़ते गये आगे ही आगे देहरादून !

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कुछ आगे जाने पर सड़क के आस-पास उगे वृक्षों ने अचानक घना होना शुरू कर दिया ! वातावरण में कुछ उमस भी बढ़ने लगी । फिर सफेदे के ऊँचे-ऊँचे पेड़ों की लम्बी और घनी पंक्तियाँ कुछ ऊपर उठती हुई दिखायी देने लगीं। हमने अनुभव किया कि हमारी बस भी थोड़े ऊपर की ओर चढ़ती जा रही है । इसके बाद क्रम से ऊपर उठते हुए घने वृक्षों के जंगल और भी घने होते गये। हमारी बस भी पहाड़ों पर चढ़ती हुई दिखायी दी । कुछ देर बाद पता चला कि हम देहरादून में प्रवेश कर रहे हैं । वहाँ कुछ देर बस रुकेगी। सब खाना-वगैरह खा लें, क्योंकि उसके बाद बस मसूरी पहुँच कर ही रुक पायेगी ! जो हो, देहरादून की यात्रा तक रास्ते में ऐसा कुछ विशेष नहीं था कि जो कोई यादगार या छाप छोड़ सके। वहाँ का मौसम भी गर्म था। पता चला कि वहाँ से यदि बीच के पहाड़ी जंगली रास्ते से जाया जा सके, तो मसूरी चार-पाँच कोस से अधिक दूर नहीं पड़ती, जबकि बस सड़क के रास्ते से पच्चीस-तीस मील है।

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खान-पान के बाद बस अब मसूरी की राह पर बढ़ चली । अब बस जिस प्रकार के रास्ते पर चल रही थी, जिस प्रकार के मोड़ काट रही थी, उसी सब से खुद पता चल रहा था कि अब हम किसी पर्वतीय प्रदेश में पहुँच चुके हैं। गोलाकार चढ़ाई, आस-पास घनी गहरी खन्दके, उनमें से धुएँ के गुब्बारों की तरह उठते हुए बादल, ठण्डी हवा के तीखे झोंके, जंगली फूलों की महक, जंगली पक्षियों-कौओं के शब्द, दूर से दिखायी देने वाली बर्फ जमी सफेद पहाड़ी चोटियाँ, लगता था कि हम प्रकृति के बड़े ही सजीव, सुन्दर और रंगीन लोक में पहुँचते जा रहे हैं ! कहाँ तो दिल्ली और देहरादून की गर्मी और कहाँ यह लगातर ठिठुरता जा रहा खुला मौसम ( बहुत ठण्ड यद्यपि नहीं हुई थी), जी चाहता था कि बस से उतर कर इन घाटियों में उतर कर दूर चला जाऊँ। वहाँ आवारा से घूम रहे बादलों के टुकड़ों को पकड़ कर ले आऊँ । अपने पास उन दिनों के लिए सुरक्षित रख लूँ कि जिन दिनों हम वर्षा को तरसते हैं दिल्ली में और वह होती नहीं । कभी-कभी तो ऐसा भी लगता कि बादल का कोई टुकड़ा भागा आकर खिड़की के रास्ते हमारी बस में आकर बैठ जाना चाहता है। ऐसी स्थिति में ड्राइवर बस की गति एकदम धीमी कर देता। कुछ देर बाद एकाएक बादल हट जाते, सूर्य चमक उठता और सारा वातावरण मखमली हरियाली में . चमचमाकर मन-मस्तिष्क पर छा जाता ! इस प्रकार प्रकृति की आँख मिचौली के दृश्य देखते हुए हम मसूरी जा पहुँचे।

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बस के रुकने तक मेरा मन तरह-तरह की कल्पना की रंगीनियों में डूबा रहा ! सोचता रहा, जहाँ का रास्ता इतना रोमांचक है, वहाँ का वास्तविक रंग-रूप कितना सुन्दर, कितना मोहक होगा ! परन्तु मेरी भावना को उस समय गहरी ठेस लगी, जब हम जैसा ही एक मनुष्य, फटे-पुराने कपड़ों में ठिठुरता, पाँव में कुछ रस्सियाँ जूते के स्थान पर लपेटे हुए, पीठ पर रस्सी और एक चौखटा-सा उठाए हुए सामने आकर कहने लगा- “कुली, साहब ! होटल ले चलेगा पिराईवेट बंगला चाहिए, वहाँ ले चलेगा।” और आगे बढ़कर उसने हमारा सामान उठाना शुरू कर दिया। उसी जैसे अन्य लोग शायद आपसी अनुशासन और – समझौते से दूसरे सैलानियों के पास पहुँच उनके सामान उठाने लगे। पता नहीं किस भावना से जब मैंने उसे रोकना चाहा, तो पास खड़े एक आदमी ने कहा— उठाने दीजिए साहब ! आपके बस में एक बैग लेकर चढ़ पाना भी नहीं है । यहाँ के निवासी यही लोग गट्ठरों और सामान उठाकर भागते हुए चढ़ाई चढ़ सकते हैं । सचमुच, जल्दी ही मैंने अनुभव कर लिया कि वे भूखे नंगे पहाड़ों के पुत्र ही इतनी शक्ति रखते हैं कि अपनी उन्नति और विकास के गर्व में फूले हम लोगों का बोझा ढो सकें ! जो हो, उसने हमें पहले से निश्चित होटल में पहुँचा दिया ! निश्चित मजदूरी के अतिरिक्त मुझ से दो रुपये की बख्शीश पाकर उसने जितने आशीर्वाद दिये, दिल्ली का भिखारी या होटल का बैरा उतनी गालियाँ भी नहीं देता होगा !

उस दिन विश्राम करके अगले दिन सुबह ही हम लोग कामटी फॉल, फोती घाट, नेहरू पार्क आदि सभी दर्शनीय स्थान देखने में व्यस्त हो गये । दो-तीन दिनों तक प्रकृति के अलग-अलग रंग-रूपों का दर्शन चलता रहा। प्रकृति कितनी विराट, महान, सुन्दर, व्यापक, आकर्षक है, इसका मुझे पहली बार अनुभव हुआ ! साथ ही यह अनुभव भी हुआ कि प्रकृति मुक्तभाव से हमें क्या और कितना देती है, पर अपने स्वार्थों के कारण उन सब को हम खुद ही हड़प जाना चाहते हैं । एक बूँद भी दूसरों को नहीं देना चाहते। वहाँ जाकर इस बात का भी पहली बार अनुभव हुआ कि अपने-आपको पढ़े-लिखे, सभ्य-सुसंस्कृत कहने वाले हम शहरी ऐसे पर्वतीय स्थानों पर जाकर प्रकृति और उसके सुन्दर वातावरण को किस तरह गन्दा कर आते हैं। नंगेपन को फैशन कहने वाले नये अमीर यहाँ आ कर और भी नंगे हो जाते हैं, मॉल रोड और यहाँ के होटलों, इधर-उधर के स्थानों पर घूम कर यह अनुभव भी प्राप्त हुआ ।

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अगले दो-तीन दिन मैंने वहाँ रहने वाले साधारण लोगों, मटिया-मज़दूरों को मिलने, उनके रहन-सहन को देखने-समझने में बिताये । टूटे-फूटे घरों में फटे हाल, आधे भूखे रहने वाले इन आम लोगों को बड़ा ही कठिन जीवन व्यतीत करना पड़ता है । इन दिनों जो कमाई कर लेते हैं, साल-भर उसी के सहारे जीवित रहना पड़ता है। आया और कोई साधन उनके पास नहीं होता। पेट काटकर लोगों की सेवा करने वाले इन लोगों के प्रति शहरियों का दृष्टिकोण अच्छा नहीं होता ! इन्हें नीच और लालची माना जाता है । जो हो, इस पर्वतीय स्थल की मेरी यात्रा मुझे खट्टे-मीठे दोनों प्रकार के हमेशा याद रहने वाले अनुभव दे गयी है, यही कह सकता हूँ ।

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