मेरी प्रथम रेल यात्रा – आत्‍मकथात्‍मक निबंध ( My First Train Journey – Autobiographical Essay )

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मेरी प्रथम रेल यात्रा – आत्‍मकथात्‍मक निबंध ( My First Train Journey – Autobiographical Essay )

जीवन में कई बार कुछ ऐसी बातें भी हो जाया करती हैं, जो भुलाने की कोशिश करने पर भी बार-बार याद आती रहा करती हैं। मैंने जब अपने जीवन में पहली बार रेल-यात्रा की थी, तब भी मुझे कुछ ऐसा अनोखा सा लगा और अनुभव हुआ था, कि उसे याद करके आज भी रोंगटे खड़े हो जाया करते हैं ।

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अपनी पहली रेल-यात्रा का अनुभव सुनाने से पहले मैं यह बता दूँ कि मैं मूल रूप से गाँव का रहने वाला हूँ। गाँव भी ऐसा कि जो शहरी सभ्यता और विज्ञान की खोजों से अपरिचित घने जंगलों में बसा हुआ है जब का यह अनुभव बता और सुना रहा हूँ, तब मेरी आयु भी यही कोई साढ़े चार-पाँच वर्षों की रही होगी। मुझे बताया गया कि सारे परिवार के साथ मुझे भी कोई सौ- सवा सौ किलोमीटर दूर वाले कसबे में जाना है । वहाँ मामा के लड़के की शादी है । यह भी बताया गया कि वहाँ जाने के लिए रेल पर जाना पड़ता है। अभी तक मैं अपने गाँव से बाहर कभी गया नहीं था। रेल का शायद नाम तो सुन रखा था, पर अभी तक उस पर सवार होकर यात्रा कभी नहीं की थी । मेरे जो कुछ साथी रेल यात्रा कर आये थे, वे जब ‘छुक-छुक’ करके अपने अनुभव सुनाते, तो बड़ा ही विचित्र एवं अच्छा लगा करता। अब मुझे भी रेल यात्रा का अवसर मिलेगा, यह समाचार पाकर मैं बड़ा खुश हुआ। अपने सभी साथियों को भी इस बात का सूचना दे आया ! फिर बड़ी उत्सुकता से उस दिन का इन्तज़ार करने लगा, जिस दिन जाना था !

आखिर वह दिन आ ही गया ! बहुत सुबह मुँह अँधेरे ही हमें जगा दिया गया। देखा, परिवार के सभी बड़े सदस्य काफी हड़बड़ी में तैयारी करने में लगे हुए हैं। माँ पूरियाँ तल रही थीं। दीदी भी उनकी सहायता कर रही थी। कुछ देर में सभी कुछ तैयार हो गया । मुझे भी नये कपड़े पहनाकर तैयार कर दिया गया ! थोड़ा नाश्ता-पानी करने के बाद, साथ ले जाया जाने वाला सामान अपने ही सिरों-कन्धों पर लाद कर हम लोग चल दिए। गाँव से रेलवे स्टेशन कोई दस- बाहर किलोमीटर दूर था ! वहाँ तक पैदल चल कर ही जाना था, सो बहुत सुबह ही चल दिये। मैं खाली हाथ था। सो कभी तो भागकर सब से काफी आगे पहुँच जाता, कभी कोई फूल – तितली आदि देखकर वहीं खड़ा हो जाता। इस कारण पीछे रह जाता। फिर भाग कर सबके साथ जा मिलता। इस प्रकार चलते – भागते हुए हम लोग कोई दो – अढ़ाई घण्टे चलने के बाद रेलवे स्टेशन पहुँच ही गये ! पता नहीं क्यों, मन-ही-मन में एक डर-सा भी पैदा हो गया, यह मैं आज भी अनुभव करता हूँ । उस अनजाने डर के कारण ही तो उस दिन बार-बार मुझे रोमांच हो आता था ।

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जब मैंने दूर तक फैली चली गयी लोहे की पटरियों को देखा, तो चौंक गया। मैंने झुककर उन्हें छुआ और दूर तक देखते हुए सोचता रहा, पता नहीं इन्हें यहाँ कौन बिछा गया होगा? वह इन्हें कहाँ से लाया और कैसे बिछाया होगा ? मेरी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था। फिर मैंने एक पटरी पर एक तरफ कुछ माल – गाड़ी के डिब्बे खड़े देखे । भाग कर उनके पास जा पहुँचा। फिर हाथ से छू-छूकर उन्हें देखता और हैरान होता रहा । इसी प्रकार पटरियों के आस-पास बिछी तारों, दूर से दिखाई देने वाले सिगनल-पोल आदि देख कर भी मैं हैरान होता रहा । मेरे लिए यह सभी कुछ एक अजूबा था। मनोरंजक और डराने वाला दोनों ही था ! मैं उन सबको घूम-फिर कर देख ही रहा था कि तभी पिताजी ने मुझे पुकार कर कहा – ‘ अरे, जल्दी से भाग कर इधर हमारे पास आ जाओ ! रेल आ रही है।’ उनकी पुकार सुनकर छलाँगें लगाता हुआ भागकर उनके पास आ गया। दो-चार क्षण वहाँ खड़े रह कर जब मैंने पीछे की तरफ देखा, तो वहाँ लगे जंगले मुझे नये और अच्छे लगे । भागकर वहाँ जाकर उन्हें देखने लगा। तभी इधर-उधर खोज भरी नजर से ढूँढने के बाद, मुझे जंगले के पास खड़ा देख, पिताजी ने फिर पुकार कर पास बुला लिया । मेरे पास आ जाने पर पिताजी ने समझाते हुए कहा, ‘अब रेल आने वाली है । कहीं इधर-उधर जाना नहीं, हमारे पास ही रहना । फिर जब हम चढ़ने लगें, तो कोशिश करके हमारे साथ ही रेल के डिब्बे में घुस जाना । ध्यान रहे, बड़ी भीड़ होती है।’ सुनकर मैंने सिर हिला दिया और जिधर सब लोग देख रहे थे, उधर ही देखने लगा ।

थोड़ी देर बाद धुआँ उठता हुआ दिखाई दिया। कुछ देर बाद छुक-छुक की आवाज़ भी सुनाई देने लगी । यह सब देख-सुनकर मेरा डर अनजाने ही बढ़ने लगा। तभी कोई कह उठा – ‘वह आ गई रेल ।’ सुनकर मैंने भी उधर देखा ! देखा कि ज़ोर-ज़ोर से धुआँ उगल, छुक-छुक करता हुआ उन बिछी पटरियों पर कुछ भागता आ रहा है । देखा, कि वह ‘पास ही पास आता जा रहा है। उसे पास आता देख अनजाने ही मेरा दिल धुक धुक करने लगा। वह आगे आ रहा था और मेरे पैर पीछे जंगले की ओर बढ़ रहे थे । रेल का इंजन जब प्लेटफॉर्म के क्षेत्र में प्रवेश कर गया, तो मैंने भागकर पीछे जा जंगले को मज़बूती से पकड़ लिया। तब तक रेल के डिब्बे मेरे सामने से गुज़रने लगे थे। उनके शोर और हलचल से मुझे सारा प्लेटफार्म, सारी धरती और सारा वातावरण हिलता हुआ प्रतीत होने लगा। जी में आया कि भाग जाऊँ वहाँ से ! इतने तक रेल रुक चुकी थी । लोग बुरी तरह हाँफते – चिल्लाते उसके डिब्बों से निकलने और भीतर घुसने की जी-तोड़ कोशिश करने लगे थे। मेरे पिताजी और परिवार के सभी लोग भी एक डिब्बे में सामान सहित घुसने की कोशिश कर रहे थे। मैं भौंचक्का-सा वहीं खड़ा खड़ा देखता रहा देखता रहा । तभी पिताजी को कहते सुना – ‘सारा सामान आ गया न ! सभी चढ़ गये न। अरे, यह छुटका कहाँ चला गया ? छुटके ! अरे छुटके !’ चिल्लाते हुए वे एक खिड़की से सिर निकाल बाहर की तरफ देखने लगे। मुझे भयभीत – सा जंगले के पास खड़ा देख वह और ज़ोर से चिल्ला कर मुझे जल्दी चले आने को कहने लगे, क्योंकि रेल चलने वाली थी !

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मैंने देखा, पिताजी कोशिश करके भी बाहर नहीं आ पा रहे थे। तब तक दरवाज़ा’ सामान और सवारियों से ठसाठस भर चुका था ! पिताजी की घबराई आवाज़ सुनकर माँ भी मेरा नाम सुन-सुनकर चिल्लाने- रोने लगी थी। तभी मैं जोर से भागा और बाँहें उठाकर कहने लगा ‘मुझे उठा लो, पिताजी, उठा लो !” पर तब तक रेल चलने लगी थी। पता नहीं कहाँ से अचानक एक कुली ने मुझे उठाया और सामान की तरह ही चलती रेल में, खिड़की की राह पटक दिया ! सारे परिवार ने शायद चैन की साँस ली, पर मैं गुमसुम सा बिटर- बिटर उन सबको तथा आस-पास खड़े-बैठे लोगों को देखता रहा ! एक सज्जन को मुझ पर दया आयी ! उन्होंने खिड़की के पास रखें अपने सामान के ढेर पर मुझे बिठा लिया ! कुछ देर बाद मैं ऐसे हो गया, जैसे कुछ हुआ ही न हो। मैं खिड़की के बाहर बड़े चाव से देखने और हैरान होने लगा कि रेल तो आगे की तरफ भागी जा रही है; पर रास्ते में आने वाले पेड़-पौधे आदि लगता था, पीछे की तरफ भागे जा रहे हैं। यह सभी कुछ मेरे लिए वास्तव में बड़ा आश्चर्यजनक था । फिर जब डिब्बे के भीतर देखता, तो लगता जैसे वहाँ सभी कुछ ठहरा हुआ है । कुछ लोग ऊँघते हुए बगल वालों पर गिरना शुरु हो गए थे, कुछ थोड़ा-सा सरक उन्हें भी बिठा लेने का अनुरोध कर रहे थे । कुछ लड़-झगड़कर एक-दूसरे को धकेलते हुए बैठ रहे थे !

अब मैं बड़ा हो गया हूँ । गाँव से आकर हम लोग एक छोटे नगर में रहने लगे हैं। रेल देखकर अब मुझे डर या आश्चर्य जैसा कुछ नहीं लगता । हाँ, अपनी पहली रेल यात्रा की याद आकर अवश्य ही मुझे रोमांचित कर जाती है। यह भी कि जब भी रेल पर सवार होता हूँ, पहले से बढ़ा हुआ किराया देना पड़ता है। हर बार भीड़ भी पहले से कहीं अधिक, दिखाई देती है । इसे आप रेलवे विभाग द्वारा दी गयी सुविधाएँ कहना चाहें, तो अवश्य कह सकते हैं !

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