एक रोमांचक बस-यात्रा – आत्मकथात्मक निबंध ( An Exciting Bus-Journey – Autobiographical Essay )
हर प्रकार की यात्रा का अपना विशेष रोमांच और महत्त्व हुआ करता है। यात्रा चाहे रेल द्वारा की जाए, चाहे बस या किसी अन्य वाहन के द्वारा, यदि हमारे मन-मस्तिष्क रोमांच और आनन्द पाने के इच्छुक हैं, तो इस सब की प्राप्ति अवश्य होती है । मैंने रेल पर तो दूर-पास की यात्रा अनेक बार की है; पर बस द्वारा लम्बी यात्रा का अवसर मुझे जीवन में बस एक बार ही प्राप्त हो सका है। यह यात्रा कोई एक-दो दिनों की नहीं, लगातार बत्तीस दिनों तक बस को ही अपना घर-द्वार सब कुछ मान कर रहना पड़ा। साथ में परिवार के अन्य सभी सदस्य, तथा कई अन्य परिवार भी थे, इस कारण हमें अजनबीपन या ऊब का अनुभव कतई नहीं करना पड़ा
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बात कोई तीन-चार वर्ष पहले की है। सरकार द्वारा यात्रा-सुविधा का लाभ उठा कर मेरे पिताजी ने वह सुविधा और यात्रा – भत्ता प्राप्त कर लिया ! निश्चित दिन रात के बारह बजे के बाद कई परिवारों से खचाखच भरी हमारी दो बसें कन्याकुमारी का लक्ष्य सामने रख कर, दिल्ली के लालकिले के बाहर से चल पड़ीं। रात भर चलने के बाद पहला पड़ाव अजमेर-जयपुर में डाला गया । वहाँ सब दर्शनीय स्थल देखने के बाद अगली रात आगे चल दिये। जोधपुर, उदयपुर, चित्तौड़गढ़, अजमेर, पुष्कर, पंचवटी नासिक आदि देखते हुए हम लोग बम्बई पहुँचे ! वहाँ दो दिन-रात रहकर जो कुछ भी दर्शनीय था, देखा और फिर गोवा की तरफ बढ़ गये । गोवा के अतिरिक्त हमने कर्नाटक, केरल, आन्ध्रप्रदेश आदि के सभी प्रमुख स्थल भी देखे, रामेश्वरम् भी गए और फिर कन्याकुमारी पहुँच कर हमनें सूर्योदय एवं सूर्यास्त के दृश्य देखकर नया रोमांच और अनुभव प्राप्त किया । परन्तु यहाँ मेरा उद्देश्य उन स्थानों को गिनाना और उनका वर्णन करना नहीं है कि जहाँ-जहाँ हम गये, मेरा उद्देश्य केवल यह बताना है कि इन सभी स्थानों की लम्बी-चौड़ी, कई दिनों में समाप्त होने वाली यात्रा हम लोगों ने केवल बस द्वारा की ! आप अनुमान लगा सकते हैं कि दिल्ली जैसे महानगर में एक-आध घण्टे में ही बस यात्रा से ऊब जाने वाले हम लोगों ने इतनी लम्बी और लगातार बत्तीस दिनों की यात्रा कितने कष्ट और ऊब के साथ की होगी ? नहीं, ऐसा मत सोचिए ! वास्तव में हमारी यह यात्रा बड़ी ही रोचक, रोमांचक और नये-नये अनुभंवों से भरी रही, तभी तो मैं उसके रहस्य – रोमांच का वर्णन करने जा रहा हूँ. आपके सामने !
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बस पर इतनी लम्बी यात्रा करने का मेरा यह पहला अवसर था । इसलिए मन में यह भय था कि इसका अनुभव बड़ा उबाऊ और थका देने वाला होगा ! रेल में तो आदमी इच्छा होने पर फिर भी उठ कर खड़ा हो सकता है, थोड़ा चल-फिर भी सकता है; पर बस में तो हर समय बैठे ही रहना पड़ता है ! सोचता, बत्तीस दिन किस प्रकार कट पायेंगे बैठे-बैठे और बिना हिले-डुले ? परन्तु सच मानिए, जैसे- जैसे बसें आगे बढ़ती गयीं, मेरा यह डर अपने-आप ही दूर होता गया ! नगर की भीड़-भाड़ से दूर खुले वातावरण और खुली सड़क पर जब हमारी बस दौड़ चलती, आस-पास के खुले प्राकृतिक दृश्यों को देखकर बड़ा, आनन्द आता! आप विश्वास कीजिए, पहले चार-पाँच दिन की यात्रा में एक बार भी मुझे नींद नहीं आयी। अगर आयी भी, तो प्रकृति-दर्शन से वंचित हो जाने के भय से मैंने स्वयं प्रयत्न करके नींद को भगा दिया । परन्तु उसके बाद क्योंकि हम रात को यात्रा करते, दिन के समय प्रायः किसी पड़ाव पर पहुँच कर वहाँ दर्शनीय स्थल देखते, इस कारण जब भी बस चलती, हमारी आँखें अपने आप ही नींद से भर कर ऊँघने लगती ! हमारे सिर एक-दूसरे पर लुढ़क जाते, पता ही नहीं चल पाता !
वास्तव में बड़ी ही रोमांचक थी हमारी वह बस यात्रा ! लगता, कभी तो बस सीधे – सपाट मैदानों में सीधी-सपाट सड़कों पर दौड़ी जा रही है। कभी आस-पास घने जंगल आ जाते और कभी जब पहाड़ी प्रदेश शुरू हो जाते, तब तो बड़ा ही मज़ा आता ! लगता, छोटे-छोटे रास्तों को पार करती हुई बस धीरे-धीरे ऊपर-ही-ऊपर उठती जा रही है। कई बार ऐसा लगता, जैसे मोड़ काटते समय बस पहाड़ी चट्टान से टकरा जायेगी। कई बार ऐसा भी लगता जैसे ज़रा-सी भूल से ही बस लुढ़क कर नीचे किसी गहरी खायी में जा गिरेगी ! इस कारण खिड़कियों से बाहर तक देख पाने का साहस न हो पाता ! आस-पास आने वाले हरे-भरे फूलों से लदे पेड़-पौधे वास्तव में मन-मस्तिष्क को मोह लेते । सुगन्ध से भर कर आने वाली ठण्डी हवा के झोंके एक सिहरन सी पैदा कर देते ! कभी-कभी सिरों पर लकड़ियाँ, घास या और किसी चीज़ का बोझा लादे गाती मुस्कुराती जा रही पहाड़ी या ग्रामीण युवतियों की टोलियाँ भी दिखाई दे जातीं। बस को आती देख वे सड़क के एक कोने पर खड़ी होकर बड़े अचरज से देखतीं । हमें लगता कि बोझ से लदा सिर घुमाकर देखते समय कहीं वे नीचे घाटी में गिर ही न जाएँ ! कई बार बस की चाल धीमी होने पर उनके गीतों की . कोई मधुर ध्वनि भी कानों में रस घोल जाती ! अक्सर पहाड़ी रास्तों से हमारी बस दिन के समय ही गुज़रा करती थी, तो सब कुछ साफ-स्पष्ट दीखता, तन-मन को रोमांचित कर जाता। कई बार जब विवशतापूर्वक कोई पहाड़ी रास्ता रात को पार करना पड़ता, तब तो एकदम नयी तरह का अनुभव होता । उस अनुभव में भय और रोमांच दोनों का मिला-जुला रूप रहता ! पहाड़ों की गोलाकार राहों पर अँधेरे को चीरती बढ़ी जा रही बस में बैठे हुए लगता, जैसे हम किसी गुफा में घुसे जा रहे हैं। आस-पास घाटियों में देखने पर लगता कि अँधेरा या धुआँ जैसे पर्त-दर-पर्त जम रहा हो! दूर से देव जैसी लगने वाली किसी चोटी को देखकर तन-मन काँप भी जाता !
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बस यात्रा का एक और रोमांच भी मेरे जीवन का एक अविस्मरणीय भाव है । कई बार कहीं जंगल में ही बस का पहिया पंचर हो जाता, कई बार कोई अन्य दोष भी पैदा हो जाता। तब बस के ड्राइवर आदि तो उसे ठीक करने लगते, हमारे साथ गये रसोइये वहीं खाना बनाना शुरू कर देते ! तब उस सूने, अनजाने जंगल में पका खाना खाते समय जो स्वाद और तृप्ति मिलतीं, सच मानिए वैसा सब बाद में आज तक कभी भी मिल नहीं सका! कई बार बस चलती रहती और हमारा खाना-पीना न हो पाता । तब किसी छोटे बस-स्टॉप पर बस के रुकते ही वहाँ खाने-पीने की छोटी दुकानें पाकर हम लोग उन पर टूट पड़ते। दुकानदारों का सारा सामान देखते-ही-देखते चुक जाता और हम लोग भूखे के भूखे रह जाते ! कई बार किसी नगर में हमें ठहरने के लिए होटल, धर्मशाला आदि कुछ भी न मिल पाता ! तब औरतों-बच्चों को बसों के भीतर ही सुलाकर हम आदमी बसों के आस-पास बाहर बिस्तर बिछा कर सो जाते। कब रात बीत गयी, पता तक न चल पाता । आप विश्वास करेंगे कि बम्बई जैसे महानगर में पुलिस से आज्ञा लेकर हमें एक रात चौपाटी पर समुद्र की रेत पर सोकर बितानी पड़ी! सच, उस रात का स्मरण आज भी रोमांच ला देता है। इसी प्रकार गोवा में वर्षा भरी पहली रात हमें बस अड्डे के शैड में ऊँघते – भीगते हुए व्यतीत करनी पड़ी थी ! बस किसी भी नदी तट पर खड़ी हो जाती, या गाँव के बाहर किसी नल अथवा कुएँ पर रुक जाती, हम लोग उतरकर अपने-अपने बर्तन लेकर पानी भर लाते । कहीं लाल, कहीं हरा, कहीं पीला पानी मिलता और सब हजम हो जाता। आज यह सब सोचकर आश्चर्य होता है कि कैसे हम लोग वह पानी पी पाते थे !
जो हो, लगातार बत्तीस दिनों तक बस ही हमारा घर-द्वार, शयन कक्ष, बैठकखाना, भोजना-कक्ष सभी कुछ बना रहा। आज भी जब उन सबकी याद आती है, तो मन उन्हीं रास्तों पर उन्हीं वादियों और घाटियों में चल निकलता है ! अपने आप ही आँखें ऊँघ कर लुढ़कने लगती हैं और मन रह-रह कर चाहने लगता है कि एक बार, बस एक बार फिर वही बातें हों वही रास्ते और वही हम सब हों !..
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