यदि मैं डॉक्टर होता (If I were a doctor – autobiographical essay)
अध्यापक, पुलिस, डॉक्टर, नर्स आदि कुछ ऐसे धन्धे हैं, जिन्हें करते हुए आदमी आसानी से अपनी जीविका तो चला ही सकता है, समाज-सेवा के आदर्श का पालन भी कर सकता है! लेकिन बड़े खेद से कहना और स्वीकार करना पड़ता है कि आज ये कार्य करने वाले लोगों का दृष्टिकोण भी सेवा करने वाला नहीं रह गया है। वह व्यापारी अधिक हो गया है । इसका कारण आज के चमक-दमक और दिखावे भरे वातावरण को ही माना जा सकता है, जिसने उपभोक्ता-संस्कृति को बढ़ावा दिया है । हर चीज़ को एक सामग्री बना दिया है। इसी कारण आज का अध्यापक कक्षा में पढ़ाने के स्थान पर ट्यूशन पढ़ाने पर बल देने लगा है। पुलिस अन्याय-अत्याचार और समाज-विरोधी तत्त्वों को समाप्त करने के स्थान पर इन सबका संरक्षण करने वाली सिद्ध हो रही है। डॉक्टर सही इलाज न कर रोगियों पर दवाओं के तरह-तरह के परीक्षण करते रहते हैं, ताकि रोग लम्बे होकर उनकी आय और लूट को बढ़ा सकें । नसें रोगियों की सेवा करने के स्थान पर उन्हें तड़फते देख कर ” भी मुँह मोड़ कर निकल जाती हैं । इतना सब होते और जानते हुए भी आदमी इन सब के पास जाने को विवश होता है। शायद हर किसी की विवशता से फायदा उठाना आज की मानसिकता बन चुकी है । इस कारण ऊपर गिनाये गये कार्य भी वैसे ही बन कर रह गये हैं, जबकि इनकी नींव समाज सेवा और राष्ट्र-निर्माण जैसे उच्च भाव और विचार पर ही रखी गयी थी ।
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आज कई कारणों से वातावरण और वायु-मण्डल अधिक-से-अधिक प्रदूषित होता जा है । फलस्वरूप नयी-नयी बीमारियाँ भी बढ़ती जा रही हैं। तरह-तरह के नये रोग उत्पन्न होकर मानव-पीड़ा के कारण बन रहे हैं। शहरों में तो सरकारी अस्पताल हैं, धर्मार्थ चिकित्सालय होते हैं । प्राइवेट डॉक्टरों और नर्सिंग होमों की भी कमी नहीं रहती ! अपनी हैसियत और सुविधा के अनुसार व्यक्ति कहीं भी जाकर अपना इलाज करा सकता या करा लेता है । परन्तु दूर-दराज के गाँवों में स्वतंत्रता प्राप्ति के इतने वर्षों बाद भी सही चिकित्सा और पढ़े-लिखें डॉक्टरों का अभाव है । वहाँ लोगों को या तो सामान्य किस्म के परम्परागत इलाजों, घरेलू टोटकों-टोनों आदि पर आश्रित रहना पड़ता है, या फिर नीम-हकीमों के वश में पड़कर तिल-तिल कर रोगों से तो क्या अपने प्राणों से ही हाथ धोने पड़ते हैं । नगरों-महानगरों में रहने वाले लोगों में से भी जो गन्दे कटरों, झोंपड़पट्टियों आदि में निवास करते हैं, उनकी दशा भी लगभग ग्रामीणों जैसी ही हुआ करती है ! उनकी सार लेने वाला कोई नहीं होता ! वास्तव में ऐसे लोगों को स्वस्थ रहने के उपाय ही पता नहीं होते । उन्हें बचाया ही नहीं जाता ! साधनों के अभाव और लगातार बढ़ रही जनसंख्या के कारण आज : अग्म आदमी का जीवन तरह-तरह के रोगों से पीड़ित होकर अस्वस्थ और दुर्बल होता जा रहा है । वह असहाय और विवश होकर सब झेल रहा है। चाह कर भी वह कुछ कर पाने में सफल नहीं हो पाता ! अस्पतालों में इतनी भीड़ रहती है कि आम रोगी लाइनों में खड़ा होते ही मरणासन्न हो जाता है । विशेष जान-पहचान और रिश्वत के बिना सरकारी अस्पतालों में सही इलाज हो नहीं पाता । धर्मार्थ चिकित्सालय भी आजकल भ्रष्टाचार के अड्डे बन गए हैं। आम आदमी प्राइवेट डॉक्टरों की मोटी फीसें, नर्सिंग होमों का बढ़ा-चढ़ा अनाप-शनाप खर्चा सहन नहीं कर पाता ! यहीं सब देख-सुनकर अक्सर मेरे मन में आता है – काश ! मैं डॉक्टर होता !
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यदि मैं डॉक्टर होता, तो नगरों के गन्दे कटरों, झोंपड़पट्टियों, ग्रामों में घूम-घूमकर लोगों को सबसे पहले यह समझाता कि तरह-तरह के प्रदूषण से भरे आज के वातावरण में अपने स्वास्थ्य का बचाव कैसे करना चाहिए । गन्दगी से बचाव और साफ-सुथरा वातावरण रोगों से बचे रहने की पहली शर्त है ! मैं साधन-सम्पन्न वर्गों में, पढ़े-लिखे लोगों में घूम-घूम कर साधन तो जुटाता ही, अपने जैसे सेवाभाव से काम करने वाले डॉक्टरों, नर्सों, अन्य युवकों का एक दल भी बनाता । इस दल में सभी प्रकार के रोगों के विशेषज्ञ सुलभ रहते ! सबसे पहले हम लोग उपयुक्त स्थानों पर जाकर लोगों को हर प्रकार के रोगों के बारे में तो बताते ही, उनके होने और फैलने के कारण भी बताते ! वे उपाय भी बताते कि जिन्हें अपनाकर उन सभी प्रकार के रोगों से बचा जा सकता है । फिर जगह-जगह जाकर आम असमर्थ लोगों के स्वास्थ्य का परीक्षण करते। किसी व्यक्ति में रोग के लक्षण पाये जाने पर यथासंभव अपने साधनों से उनका इलाज करते । छूत के रोगियों को बाकियों से दूर रखकर उनका विशेष उपचार करते, ताकि वे छूत के रोग बाकी लोगों में न फैलें ।
नगरों के गन्दे कटरों, झोंपड़पट्टियों और दूर-दराज के देहातों में गन्दा वातावरण, पानी की निकासी का अभाव, पीने के लिए स्वच्छ पानी का अभाव आदि भी अनेक रोगों या अस्वस्थता का कारण बना करते हैं । यदि मैं डॉक्टर होता, तो अपने दल-बल के साथ लोगों को समझा-बुझाकर इन सारी बुराइयों को दूर करने का प्रयास करता । उन सरका और निर्वाचित संस्थाओं के द्वार भी खटखटाता जो सफाई और जनता के स्वास्थ्य की रक्षा के लिए ज़िम्मेदार हैं। उनपर जनता का दबाव डालकर सारा काम करवाता। दबाव इस लिए, कि आजकल कोई भी काम इस प्रकार के संस्थानों में या तो रिश्वत के बल पर होता है, या फिर सामूहिक दबाव से । सो दबाव ही डलवाता, क्योंकि रिश्वत को मैं एक कोढ़, एक भयानक रोग मानता हूँ, जिसका इलाज दृढ़ इच्छा-शक्ति वाले, निस्वार्थ राजनेतागण ही कर सकते हैं। खेद से मानना पड़ता है कि आज हमारे देश में रोगी मानसिकता वाले राजनेता ही अधिक हैं। इसी कारण तरह-तरह के बौद्धिक, मानसिक और शारीरिक रोग फैल रहे हैं। अपने डॉक्टर होने की इच्छा पालकर मैं शारीरिक रोगों से लड़ने की बात ही कह और कर सकता हूँ । सो, यदि मैं डॉक्टर होता, तो हर संभव ढंग से वह उपाय करता कि जिससे जन स्वास्थ्य ठीक रह पाता !
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कहावत है कि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन बुद्धि और आत्मा का निवास हुआ करता है । सो राष्ट्र के मन, बुद्धि और आत्मा को स्वस्थ रखने के लिए आवश्यक है कि उसका प्रत्येक जन स्वस्थ हो, निरोग हो । आम जनों की संख्या हमेशा अधिक हुआ करती है और खेद के साथ स्वीकार करना पड़ता है कि सबसे अधिक खिलवाड़ आम जन और उसके स्वास्थ्य के साथ ही हुआ करता है । आज भी हो रहा है ! इसका कारण हमारी मानसिक-आत्मिक अस्वस्थता ही है । यदि मैं डॉक्टर होता, तो भरसक इस प्रकार की अस्वस्थता के विरुद्ध भी जनमत बनाने का प्रयत्न करता ! जनमत का अधिक-से-अधिक जागरूक होना हर मोर्चे पर, हर प्रकार के इलाज के लिए बहुत आवश्यक है ।
आज के युग में हर वस्तु के दाम लगातार बढ़ते ही जा रहे हैं। महँगाई जानलेवा होती जा रही है। साधारण रोगों का उपचार करने वाली दवाइयाँ ही जब मुनाफाखोरों के कारण महँगी बिक रही हैं, तब प्राणरक्षक दवाइयों के मूल्य का तो कहना ही क्या ? उन्हें ग़ायब करके कई-कई गुना अधिक दामों में चोरबाज़ारी से बेचा जाता है। कई बार तो पैसा जुटाकर भी आम आदमी कोई विशेष दवा प्राप्त नहीं कर पाता । मैं यदि डॉक्टर होता, तो यथासंभव उन लोगों का मुफ्त इलाज करता कि जो गरीबी की मान्य रेखा से नीचे रह रहे हैं। बाकी लोगों का इलाज उचित या एकदम सामान्य दाम लेकर करता । आवश्यक दवाइयाँ हर किसी को उचित दर पर उपलब्ध कराता । आज महँगाई के युग में मेरे या किसी भी डॉक्टर के लिए सभी का मुफ्त इलाज कर पाना तो संभव नहीं! ऐसा तो केवल सरकार और संस्थाएँ ही कर सकती हैं। मुझे, यानि डॉक्टर को भी तो जीने के लिए उचित मात्रा में रुपया-पैसा चाहिए न ! सो, यदि मैं डॉक्टर होता, तो इस पवित्र काम को मोटी आमदनी का ज़रिया या एक व्यापार तो कभी भी नहीं बनने देता । समाज-सेवा का साधन मानकर उतना ही कमाता, जितना मेरे और मेरे घर-परिवार के लिए बहुत आवश्यक होता !
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