मेरी दिनचर्या ( My Routine – Autobiographical Essay )
दिनचर्या, अर्थात् दैनिक कार्यक्रम । एक विद्यार्थी की दिनचर्या क्या और कैसी हो सकती है ? पढ़ने-लिखने, खाने- खेलने और सोने के सिवा एक विद्यार्थी को करना ही क्या होता है, जो उससे उसकी दिनचर्या के बारे में पूछा जाये ? उसे वह सब बताने के लिए विवश किया जाये ? लेकिन जब हम गम्भीरता से विचार करते हैं, तो पाते हैं कि सहज – सफल जीवन जीने के लिए, जीवन को व्यावहारिक और क्रियाशील बनाये रखने के लिए छोटे-बड़े, हर स्थिति वाले आदमी की एक निश्चित दिनचर्या होनी ही चाहिए। जो विद्यार्थी आगे चल कर सफल नागरिक बनना चाहते हैं, सार्थक जीवन जीना चाहते हैं, उन्हें तो घड़ी की सुइयों के साथ चलने की आदत अवश्य डालनी चाहिए। अर्थात् एक उचित और आवश्यकतानुसार दिनचर्या बना कर नियमपूर्वक उसका पालन करना ही चाहिए। सो अपने घर-परिवार के बड़े सदस्यों, गुरुजनों के आदेश और निर्देश से मैंने अपनी एक सीधी-सादी दिनचर्या बना रखी है। हर संभव कोशिश करके मैं उसी के अनुसार चल रहा हूँ । आप उसके बारे में. जानना चाहते हैं न! बता रहा हूँ, सुनिए :
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मैं सुबह हर रोज़ पाँच बजे तक सोकर उठ जाता हूँ। रात को ताम्बे के एक लोटे में पानी भरकर मैं उसे अपने बिस्तर के पास ही रख दिया करता हूँ । सोकर उठने के बाद भगवान का स्मरण कर अपने दोनों हाथ देखने के बाद मैं पानी से भरा वह लोटा गटगट पी जाता हूँ । उसे पीने के कुछ देर बाद शौच आदि से निवृत्त हो अपने बड़े भाई के साथ पास वाले पार्क में टहलने चला जाता हूँ। थोड़ी देर इधर-उधर टहलने के बाद मैं और भाई साहब पहले कुछ हल्का व्यायाम करते हैं, फिर कुछ योगासनों का अभ्यास करते हैं । इस प्रकार हर दिन आधा-पौना घण्टा तक प्रातः भ्रमण, व्यायाम आदि करके हम लोग घर वापिस लौट आते हैं। घर आकर नहाना-धोना होता है। जब तक नहा-धोकर तैयार होता हूँ, तब तक नाश्ता तैयार करके माता जी बुला लेती हैं। दूध, फल, कभी-कभी गाजर या दाल आदि का हलवा, दलिया आदि का नाश्ता करने के बाद मैं स्कूल जाने की तैयारी करने लगता हूँ। हमारा स्कूल सुबह सवा सात बजे से एक-डेढ़ बजे तक लगता है, हमारे घर से दूर भी नहीं है। सो मैं अपना बस्ता सँभाल स्कूल चल देता हूँ ! मेरी आदत स्कूल में भागते-भागते पहुँचने की नहीं है ! देर से पहुँचने की भी नहीं है। इस कारण मैं आराम से चलते हुए प्रार्थना आरम्भ होने से पाँच-सात मिनट पहले ही पहुँचकर हर रोज़ प्रार्थना में भाग लेता हूँ ।
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प्रार्थना के बाद कक्षाएँ आरम्भ हो जाती हैं। हर विषय के अध्यापक जो कुछ पढ़ाते हैं, मन लगाकर पढ़ता हूँ। समझ न आने पर तब तक प्रश्न करके उसे पूछता और समझने की कोशिश करता रहता हूँ, जब तक कि अच्छी तरह समझ में नहीं आ जाता। मेरे सर्भ अध्यापक मेरा स्वभाव जानते हैं, इस कारण बुरा न मान मुझे ठीक प्रकार से समझाते, पूछे गये प्रश्नों का ठीक उत्तर देते हैं। बीच में एक पीरियड पी० टी० का आता है, उसमें भ मैं नियमपूर्वक अभ्यास करता हूँ। इससे मेरा शरीर हमेशा स्वस्थ रहता है। कभी बीमा नहीं पड़ता ! स्कूल में अक्सर तरह-तरह के खेलों का आयोजन भी होता रहता है। हॉकी और फुटबॉल खेलना पसन्द करता हूँ ! जब कभी टूर्नामैण्ट आदि में भाग लेने के लिए विशेष अभ्यास करने पड़ते हैं, तब सायंकाल भी खेलने आना पड़ता है, बाकी दिनचर्या बदलनी पड़ती है, नहीं तो पढ़ाई के समय के बीच में ही सब हो जाता है। मेरी रुचि एन० सी० सी० की गतिविधियों में भी है, इस कारण पढ़ाई के पीरियड समाप्त होने के बाद कम-से-कम एक घण्टे तक मुझे उसके लिए रुकना पड़ता है ।
कोई दो बजे के लगभग घर पहुँचकर, स्कूल का बस्ता अपने स्थान पर रख कर हाथ-मुँह धोकर मैं खाना खाया करता हूँ ! खाने के बाद कम-से-कम एक घण्टा पूर्ण विश्राम करता हूँ ! नींद न आने पर भी चुपचाप पड़ा रहता हूँ, किसी से बहुत आवश्यक होने पर ही बातचीत आदि करता हूँ, नहीं तो शान्त पड़ा रहता हूँ। उसके बाद उठकर दो घण्टे तक स्कूल का कार्य निपटाने कां मैंने पक्का नियम बना रखा है। यह नियम छुट्टी वाले या किसी विशेष उत्सव-त्योहार वाले दिन ही टूटता है, और कभी भी नहीं। स्कूल का काम करने के बाद लगभग पाँच बजे मैं हल्का नाश्ता कर घर से निकल पड़ता हूँ। आस-पड़ोस के रिश्ते-नातों और मित्रों- सहपाठियों से मिलकर हल्के-फुल्के ढंग से बातें करता और गप्पें मारा करता हूँ। विश्वास कीजिए, गप्पों का अर्थ फालतू बातें, सिनेमा की बातें या अश्लील बातें नहीं, बल्कि धर्म, समाज, राजनीति, किसी सांस्कृतिक कार्यक्रम आदि के बारे में बातें करता हूँ। इससे बहुत सारी जानकारियाँ तो मिल ही जाया करती हैं, मन भी हल्का हो है । जी बहल जाता है । क्योंकि समय-समय पर हम लोग आपस में मिल कर कई तरह के मनोरंजक और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का भी आयोजन करते रहते हैं, सो कई बार अपने इस समय का उपयोग इस प्रकार के कार्यक्रमों की तैयारी के लिए भी कर लिया करता हूँ! आपको इस बात का भी विश्वास दिलाता हूँ कि हम जो मनोरंजक-सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित करते हैं, उनमें मात्र फिल्मी गाने गा देना या किसी की भोंड़ी नकल कर देना नहीं रहा करता; बल्कि हर कार्य अपनी धरती और संस्कृति से जुड़ा रहता है । इस कारण हमें कई प्रशंसापत्र भी मिल चुके हैं !
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इसके बाद घर लौट कर एक-डेढ़ घण्टे तक फिर मैं मन लगाकर पढ़ता हूँ । अपने पाठ दोहराता हूँ और उसके बाद ? नहीं, छिपाऊँगा या झूठ नहीं बोलूँगा । आजकल का ज़माना दूरदर्शन का जमाना है । सो मैं भी अपने सारे परिवार के साथ दूरदर्शन के सामने डट जाया करता हूँ। हम लोग वहीं एक-दूसरे से बातें करते, सभी तरह के हाल-चाल जानते-सुनते, खाना भी वहीं खाते हुए दूरदर्शन के मनपसन्द कार्यक्रम देखते रहते हैं । कई बार कुछ कार्यक्रम देखकर दूरदर्शन वालों की सोच-समझ और कल्पना – शक्ति पर रोना भी आता है ! पर हम लोग कर भी क्या सकते हैं! या तो वे लोग जो कुछ भी उलटा-सीधा दिखा रहे हैं, उसे बरदाश्त करते रहते हैं, या फिर दूरदर्शन का बटन बन्द कर आपसी बातों में मगन हो जाया करते हैं। आपस में हँसी-मज़ाक भी कर लेते हैं। समाचार और उसके बाद दिखाया जाने वाला धारावाहिक, बस ! हमारा दूरदर्शन का दर्शन यहीं तक सीमित रहता है। हाँ, कभी कोई बहुत महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम साढ़े नौ बजे रात के बाद दिखाया जाना हो, तो अवश्य देखते हैं, अन्यथा यहीं तक बस !
स्वाभाविक हैं कि अब तक बिस्तर की याद आने लगती है। साथ ही वह मीठा – गुनगुना दूध भी याद आने लगता है, जो माता जी हर रात सोने से पहले हम सभी भाई-बहनों को पिलाया करती हैं । उसे पीने के बाद बिस्तर पर लेटे ज्यादा देर तक बातें नहीं कर पाते । अपने आप ही निंदिया रानी आकर आँखों में भरने लगती है। फिर कब नींद आ जाती है, पता ही नहीं चल पाता ! बस, आदत के अनुसार सुबह पाँच बजे भाई साहब की आवाज़ सुनकर ही पता चल पाता है कि मैं सोया हुआ था। अब मुझे उठकर अपनी दिनचर्या को नये सिरे से शुरू करना है। बस, इतनी-सी है अपनी दिनचर्या ! क्या आप की दिनचर्या भी लगभग ऐसी ही है? यदि मेरी तरह विद्यार्थी हैं, तब तो ऐसी होनी ही चाहिए ! चलो, कोई बात नहीं। थोड़ी भिन्न ही सही पर आज नहीं सुन पाऊँगा ! भाई, मुझे दिनचर्या का अगला काम आरम्भ करना है न ! फिर कभी सुनूँगा !
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