शिक्षा में खेल और कलाओं का महत्त्व
शिक्षा का कार्य आदमी को साक्षर बनाना तो है ही, आदमी की सोयी हुई शक्तियों को जगाकर उसे अपने-आप में पूर्ण गुणवान बनाना भी है ! शिक्षा पाने के समय को भविष्य-जीवन की तैयारी का समय भी कहा जाता है । यह तैयारी कई प्रकार से करनी पड़ती है । तन से भी, मन से भी और बुद्धि से भी ! जो व्यक्ति शिक्षा काल में अपने-आप को सभी प्रकार से तैयार कर लेता है, आगे चलकर अपने भविष्य को वही सफल और सार्थक बना पाता है । इसीलिए कहा जाता है कि आदमी को अपने आने वाले जीवन में सफलता पाने के लिए शिक्षा – काल से ही तैयारी आरंभ कर देनी चाहिए ।
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शिक्षा का अर्थ और उद्देश्य जीवन का सभी प्रकार से विकास करना है । यह विकास जितना मन-मस्तिष्क का आवश्यक है, उतना ही शरीर का भी आवश्यक है। ध्यान रहे, केवल किताबी कीड़ा बन जाने से आदमी कुछ परीक्षाएँ तो पास कर सकता है, पर तन-मन और बुद्धि का सम्पूर्ण विकास नहीं कर सकता। इसके लिए पढ़ाई-लिखाई के साथ-साथ कुछ और कार्यों में रुचि लेना ज़रूरी होता है । एक विद्यार्थी के लिए इस प्रकार के अन्य कार्य दो ही कहे जा सकते हैं, वे हैं – खेल – कूद और कलाओं में रुचि लेना । सभी विद्वानों और महापुरुषों ने अच्छे विद्यार्थियों के लिए ढंग से पढ़ने-लिखने के साथ-साथ जिन करण कामों की सिफारिश की है, वे खेल-कूद या व्यायाम और ललित कलाओं में रुचि लेना ही । वास्तव में विद्यार्थी जीवन में इन दो कार्यों का बड़ा महत्त्व एवं प्रयोजन सिद्ध हो सकता है ! सभी प्रकार का विकास इन कार्यों के साथ-साथ करने से ही संभव हो सकता है!
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कहावत है कि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन-मस्तिष्क का निवास हुआ करता है । शरीर को स्वस्थ करने के लिए व्यायाम का बहुत अधिक महत्त्व होता है। अपनी रुचि के अनुकूल तरह-तरह के या कोई एक खेल खेलने की आदत डालने से मनोरंजन भी हो जाता है और व्यायाम भी ! खेलों को भी वास्तव में शिक्षा का अंग मानकर ही चला जाता ‘ है। विद्यार्थियों को ऐसा मान कर ही उत्साहपूर्वक खेलों में रुचि लेनी चाहिए ! जैसे पुस्तकें पढ़कर हम बहुत सारी अच्छी और उपयोगी बातें सीखते हैं, उसी प्रकार खेल-कूद से भी बहुत कुछ सीखते और सीख सकते हैं। खेलों से स्वास्थ्य तो ठीक रहता ही हैं, हमारे जीवन का क्रम और व्यवहार भी ठीक हो सकता है । स्वस्थ रहकर व्यक्ति अच्छी प्रकार से पढ़-लिख सकता है, हर प्रकार का परिश्रम करके भविष्य में पूर्ण बनने का सफल प्रयास कर सकता है! खेल-कूद विद्यार्थी के मन में मुकाबले की स्वस्थ भावना जगाते हैं । उसे मिल-जुलकर काम करने, अपने लक्ष्य तक पहुँचने की प्रेरणा देते हैं। एक और संगठित होकर काम करना सिखाते हैं । मनुष्य की विजय पाने की भावना को प्रबल बनाते हैं । उसमें उत्साह की भावनाएँ रखते हैं । फलस्वरूप खेलों में रुचि रखने वाला व्यक्ति अच्छी प्रकार पढ़ने-लिखने के साथ-साथ अपने अन्य सभी कार्य भी चुस्ती से कर सकता है । खेल-कूद में व्यक्ति का अपने और अपने साथियों के साथ मिलकर दोनों तरह से ध्यान अपने गोल अर्थात् लक्ष्य पर रहता है, इससे वह किसी भी काम में ध्यान केन्द्रित कर लेने की शिक्षा पाकर उसका उचित अभ्यास भी कर लेता है। पढ़ाई-लिखाई के साथ खेलों का यह महत्त्व वास्तव में बड़ा ही लाभदायक और उपयोगी है। शरीर, मन और आत्मा के विकास का अच्छा साधन है।
खेलों की तरह कलाओं में रुचि रखना और उनका अभ्यास करना भी शिक्षा पा रहे विद्यार्थी के लिए कई तरह से उपयोगी हो सकता है। ललित कलाओं का सम्बन्ध मनुष्य के भावों के साथ हुआ करता है । अतः कलाओं में रुचि लेकर पढ़ने-लिखने वाला व्यक्ति हर प्रकार की मधुर, कोमल, और सुन्दर भावनाओं का उचित विकास करके जीवन को भी -मधुर-सुन्दर बना सकता है । कलाएँ हमारी रुचियों का परिष्कार और विस्तार दोनों करती हैं। हमारी कल्पना-शक्ति को बढ़ाती हैं। जीवन के प्रति हमारे दृष्टिकोण को सुन्दर, स्वस्थ और रुचिकर बनाती हैं । साहित्य, संगीत, चित्र, नृत्य, मूर्ति और वास्तु आदि ललित कलाएँ हमारा काफी मनोरंजन भी करती हैं । यह मनोरंजन जीवन को विशेष बल देने वाला हुआ करता है ! कलाओं के अभ्यास से हमारे ध्यान में एकाग्रता आती है, विचार उच्च और महान बनते हैं। मनुष्य की मनुष्यों के प्रति समझ और सहानुभूति बढ़ती है। किसी भी अच्छी शिक्षा का मूल उद्देश्य यही सब करना तो हुआ करता है न! सो कह सकते हैं कि शिक्षा में खेल – कूद के समान कलाओं का महत्त्व भी स्पष्ट है ! इन तीनों अर्थात् शिक्षा, खेल-कूद, कला – साधना का महत्त्व त्रिवेणी के समान ही पवित्र एवं तन-मन को शक्ति देने वाला है !
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शिक्षा का अर्थ आदमी को योग्य और क्रियाशील बनाना है । खेल – कूद यदि शरीर को स्वस्थ-सुन्दर बनाकर आदमी को योग्यता और क्रियाशीलता की तरफ बढ़ाते हैं, तो कलाएँ उसके मन-मस्तिष्क को मनोरंजक ढंग से सुन्दर – स्वस्थ बनाकर वही सब करती हैं वे आत्मा को जगाकर अपनी मधुरता से आदमी को आनन्दलोक में ले जाती हैं ! पढ़ाई-लिखाई के साथ खेल-कूद को महत्त्व देना यदि स्वस्थ प्रतियोगिता और मेल-जोल की भावना को बढ़ावा देता है, तो कला भी मन का मन से, आस का आत्मा से मिलन करती हैं। जैसे खेल-कूद में छोटे-बड़े, ऊँच-नीच का द-भाव नहीं होता, उसी प्रकार कलाएँ भी आदमी को इस प्रकार के भेद-भावों से ऊपर ले जाती हैं। कलाएँ भावनाओं में उत्थान और विस्तार इस सीमा तक कर दिया करती हैं कि उनके संसार में अपना पराया कोई नहीं रह जाता । सभी मिलकर एक हो जाते है । यही कारण है कि शिक्षा-काल में जहाँ खेल-कूद को आवश्यक स्थान दिया जाता है, वहाँ कलाओं की भी उपेक्षा नहीं की जाती। पढ़ाई-लिखाई आदमी की आँखें खोल कर उसे अँधेरे से उजाले की तरफ ले जाती है, खेल कूद तन-मन को दुर्बलता और रोगों से बचाकर सबलता और निरोगता की तरफ ले जाते हैं, ललित कलाएँ मन और आत्मा की कुरूपता को दूर कर, हृदयहीनता को मिटाकर सुन्दरता और सरसता की ओर ले जाती हैं । इस प्रकार तीनों हमारा स्वस्थ मनोरंजन भी करते हैं । स्पष्ट है कि तीनों का उद्देश्य मानव-जीवन का विकास कर उसे उन्नत बनाना है । जब इन तीनों को मिला दिया जाये, तो फिर शिक्षा पाने के इच्छुक व्यक्ति में किसी भी प्रकार की कमी या हीनता रह जाना संभव नहीं होता !
आज का जीवन बड़ा जटिल है । आज शिक्षा का अर्थ केवल साक्षर होना या पढ़-लिख पाना ही नहीं रह गया, बल्कि जीवन और समाज का बहुमुखी विकास करना है । जीवन और समाज में आ गयी जटिलताओं को दूर करना है । जीवन और समाज में आ गयी शुष्कता और नीरसता को मिटाना भी है। सबसे बढ़कर जीवन को जीने योग्य बनाना है । यह तभी संभव हो सकता है कि जब शिक्षा हमारे तन के साथ-साथ हमारे मन और आत्मा को भो जगाने वाली हो । शिक्षा क्षेत्र में आवश्यक रूप से खेलों और कलाओं का समावेश करके ही इस लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है, ऐसा हमारा दृढ़ मत है । इसके लिए आवश्यक है कि लार्ड मैकाले के ज़माने से चली आ रही शिक्षा प्रणाली को बदला जाये । विद्यार्थियों के लिए विद्यालयों के पास ही खेल-कूद के लिए मैदान उपलब्ध कराये जाएँ ।
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विद्यालयों में ललित कलाओं की उचित शिक्षा और अभ्यास का प्रबन्ध किया जाए। तभी शिक्षा सच्चे अर्थों में पढ़ने वालों के तन-मन और आत्मा का पूर्ण विकास कर, अपने बास्तविक उद्देश्य और महत्त्व को सफल सार्थक कर पायेगी ।
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