सहशिक्षा ( Essay Of Coeducation )
सहशिक्षा का साधारण अर्थ है लड़के-लड़कियों की एक साथ शिक्षा ! दूसरे शब्दों में, लड़के-लड़कियों को एक साथ, एक ही कक्षा भवन में बिठा कर एक ही समय में सभी विषय पढ़ाना-लिखाना सहशिक्षा कहलाता है । आज यद्यपि लड़कियों के लिए विद्यालय, महाविद्यालय अलग भी हैं, फिर भी प्रायः हर स्कूल-कॉलेज में सहशिक्षा की व्यवस्था विद्यमान है । यहाँ पढ़ने वाले छात्र-छात्राओं और उनके अभिभावकों की इच्छा है कि वे अपने आश्रितों को सहशिक्षा वाले विद्यालयों में पढ़ायें, या फिर छात्र-छात्राओं को अलग-अलग शिक्षा देने वाले विद्यालयों में भेजें। किसी पर कोई पाबन्दी नहीं है ।
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प्राचीन भारत में शायद सहशिक्षा की व्यवस्था उस युग के गुरुकुलों में थी । कहा जाता है कि तब तक्षशिला, नालन्दा आदि विश्वविद्यालयों, या फिर ऋषियों के आश्रमों में जहाँ कहीं भी शिक्षा की व्यवस्था थी, वह राज्य की ओर से हुआ करती थी । वहाँ छात्र-छात्राएँ इकट्ठे पढ़ा करते थे। यह बात अवश्य खोज का विषय है कि ‘इकट्ठे’ से तात्पर्य एक ही साथ और एक ही समय में पढ़ना है, या एक ही समय आदि में अलग-अलग कक्षाओं में दोनों (छात्र-छात्राओं) के पढ़ने-पढ़ाने की व्यवस्था थी । जो हो, गार्गी, सती अनुसूया, प्रियम्वदा जैसी विदुषी ऋषि-पत्नियों के उदाहरण देकर कहा जाता है कि उन्हें छात्रों के साथ ही शिक्षा-दीक्षा प्रदान की गयी थी ! तब यदि सहशिक्षा हुआ करती थी, तो भी उसके किसी • अच्छे-बुरे परिणाम की लिखित या मौखिक चर्चा कहीं भी नहीं मिलती ! अतः न तो उसके बारे में विशेष कुछ कहा जा सकता है और न ही उसे आज का या किसी प्रकार का आदर्श मान कर चला जाता है । भारतीय इतिहास के मध्यकाल में तो शायद नारी-शिक्षा एकदम प्रतिबंधित कर दी गयी थी, इसी कारण इस युग की शिक्षा-व्यवस्था का कोई स्वरूप एवं उदाहरण प्राप्त नहीं होता । कुछ लोगों के बारे में यह अक्सर कहा जाता है कि वे उच्च परिवारों की नारियों के शिक्षालयों जैसे कवि आचार्य केशव देव के बारे में प्रसिद्ध है कि उन्होंने अपनी शिष्याओं को पढ़ाने के लिए कुछ पुस्तकें रची थीं। हमारा विचार है, मध्य काल में अगर नारियों को शिक्षा दी भी जाती रहीं, तो उनके घरों या राजभवनों में, कहीं भी विद्यालयों में भेजकर नहीं । अतः मध्य काल में सहशिक्षा की व्यवस्था होने का प्रश्न ही नहीं आता !
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वास्तव में आज के भारत में जिस प्रकार की और जिस रूप में सहशिक्षा का प्रचार है, वह ब्रिटिश राज की देन और पश्चिम का प्रभाव है। हाँ, आज सहशिक्षा का प्रचार-प्रसार जिस सीमा तक हो चुका है, ब्रिटिश राज के दिनों में भी इस सीमा तक नहीं था । तब बहुत सीमित संख्या में इस प्रकार के विद्यालय हुआ करते थे, जहाँ सहशिक्षा दी जाती थी ।
स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद से ही इसका विस्तार आरम्भ हुआ है और आज इस सीमा तक हो चुका है कि अक्सर विद्यालयों में लड़के-लड़कियाँ साथ-साथ पढ़ते हैं, यद्यपि उनके अलग-अलग पढ़ने की व्यवस्था भी उपलब्ध है, स्कूल-कॉलेजों दोनों स्तरों पर इसके रहते हुए भी आधुनिक बनने और आधुनिक कहलाने की झोंक में प्राय: अभिभावक अपने आश्रितों को सहशिक्षा विद्यालयों में ही भेजना चाहते हैं, भेजते भी हैं । जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, यह प्रयोग पश्चिम के प्रभाव से ही यहाँ आया है। अब यह भी सत्य है कि पश्चिमी देश शिक्षा की इस व्यवस्था का कुफल भोग रहे हैं, उन कुफलों और कुपरिणामों को वे लोग भली प्रकार समझ भी चुके हैं। अब चाहते हैं कि लड़के-लड़कियों की शिक्षा अलग-अलग हो, अलग-अलग होना ही सामाजिक दृष्टि और नैतिक मूल्यों की रक्षा के लिए आवश्यक है। ऐसा जान-सोच कर भी वे अलग-अलग व्यवस्था नहीं कर पा रहे, यह अलग बात और उनकी विवशता ही कही जा सकती है। इधर भारत में भी इसके कुपरिणाम सामने आते रहते हैं, पर अभी तक यह देश इस प्रकार की शिक्षा व्यवस्था की लाभ-हानियों पर पूरी तरह से विचार भी नहीं कर सका। इसे भी हम इस देश की पनपती राजनीतिक इच्छाहीनता और आर्थिक विवशता ही कहेंगे।
जो हो, पहले सहशिक्षा के उज्ज्वल पक्ष या लाभ पर विचार करना अच्छा होगा ! कहा जाता है कि सहशिक्षा के कारण स्त्री-पुरुष में समानता का भाव जागता है । सदियों तक भारत में नारी को पर्दों और चारदीवारियों में बन्द रखा गया ! उसे अशिक्षित भी रखा गया। इस कारण उसमें हीनता का भाव आ गया। सहशिक्षा द्वारा इस हीनता के भाव को समाप्त किया जा सकता है और बहुत हद तक दूर कर दिया गया है। यह भी मान्यता है कि लड़के-लड़कियों को एक-दूसरे से बहुत दूर रखने के कारण दोनों में एक प्रकार का आवश्यक रहस्य और आकर्षण पैदा हो जाया करता है ! शिक्षा क्षेत्र में जब शैशव के सुकुमार क्षणों से ही लड़के-लड़कियाँ साथ-साथ रहना शुरू कर देते हैं, तो वह रहस्यपूर्ण बेकार का आकर्षण अपने-आप ही समाप्त हो जाता है। इस कारण कामुकता का अनावश्यक भाव दोनों को दूषित और पीड़ित नहीं करता ! साथ-साथ रहने से दोनों में मित्रता और समानता का भाव जागता है, एक-दूसरे को छोटा या हीन समझने की भावना अपने-आप ही समाप्त हो जाती है। आजकल क्योंकि नारी जीवन और समाज के हर क्षेत्र में पुरुष के साथ मिलकर कार्य कर रही है, सो शुरू से ही दोनों के निकट रहने से आपसी झिझक जाती रहती है । सहज स्वाभाविक समझ और सूझ-बूझ पैदा होती है। दोनों के मन-मस्तिष्क का विकास सहयोगी भाव से होता है । यह भाव आगे उचित रूप से जीवन का पथ-प्रदर्शन करता रहता है। दोनों के लिए अपने कर्तव्यों का निर्वाह कर पाना सहज हो जाया करता है । सहशिक्षा में इस प्रकार के और भी कई प्रकार के लाभ गिनाये जाते हैं ।
अब तनिक सहशिक्षा के दूसरे अँधेरे या हानि पक्ष पर भी विचार कर लिया जाये, जिसके कारण पश्चिमी देशों के लोग इस व्यवस्था को समाप्त करना चाहते हैं । आज जीवन-मूल्यों, आदर्शों, अच्छी परम्पराओं, रीति-नीतियों का जिस तेज़ी से अन्त होता जा रहा है, उसके रहते सहशिक्षा को उचित नहीं ठहराया जा सकता ! सहशिक्षा के कारण, नारी में जो एक सहज स्वाभाविक लज्जा का भाव होता है, वह या तो समाप्त हो चुका है, या . फिर तेज़ी से होता जा रहा है। उस पर आज जिस प्रकार के लगभग नग्न रखने वाले फैशन आ रहे हैं, थोथी तड़क-भड़क बढ़ रही है, भ्रष्टाचार और काले धन्धे बढ़ रहे हैं, कामुकता और हिंसा भरी नंगी फिल्में दिखायी जा रही हैं, जिस उपभोक्ता संस्कृति का नंगा नाच चारों तरफ हो रहा है, उन सबके प्रभाव ने आज के लड़के-लड़कियों को भी स्वप्नजीवी बना दिया है । वे ग्लेमर और बाहरी तड़क-भड़क से आकर्षित होकर विचार और क्रिया दोनों की दृष्टि से भ्रष्ट होते जाते हैं । उनमें यौनाकर्षण और यौनाचार की स्वच्छन्दता भी घर करती जाती है। आज जो लूट-पाट, मार-पीट और बलात्कार आदि की घटनाएँ सामने आती हैं, उनमें पढ़े-लिखे स्वतंत्र विचार वाले घरों के बालकों का हाथ अक्सर रहता है। छात्रों के सम्पर्क में आकर स्वप्नजीवी छात्राएँ भी नशेखोरी आदि का शिकार होकर मुक्त यौनाचार में लिप्त होती देखी जाती हैं ! समाज-शास्त्री मानते हैं कि लड़कियों में इस प्रकार की आदतें साथ पढ़ने-रहने वाले लड़कों के प्रभाव से ही आती हैं।
ऊपर जिन दोनों पक्षों का वर्णन किया गया है, सहशिक्षा के वे दोनों सत्य एवं वास्तविक परिणाम हैं। दोनों का तुलनात्मक अध्ययन करके, जीवन-समाज के बढ़ते क़दमों की ध्वनि पहचान कर ही हमारे शिक्षाविदों और राजनेताओं को दृढ़ इच्छा शक्ति से फैसला करना कि सहशिक्षा को जारी रखना है या फिर राष्ट्रीय सभ्यता-संस्कृति के मूल्यों की रक्षा के लिए इसे बन्द करना है ।
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