शिक्षा और व्यवसाय
व्यवसाय का अर्थ है— काम-धन्धा या रोज़गार और शिक्षा का अर्थ है – ज्ञान ! अपनी मूलभूत और स्वरूपगत अवधारणा में शिक्षा का अर्थ या प्रयोजन व्यवसाय नहीं, बल्कि एक मात्र अर्थ और प्रयोजन है अनेक विषयों का ज्ञान प्राप्त करना । शिक्षा व्यक्ति को विविध विषयों का ज्ञान कराकर उसके मन-मस्तिष्क, इच्छा और कार्य शक्तियों का विकास तो करती ही है, उसके छिपे या सोये गुणों को उजागर कर एक नया आत्मविश्वास भी प्रदान करती है। इन सब बातों को लेकर, या शिक्षा द्वारा इन सब बातों में सम्पन्न होकर व्यक्ति अपने लिए कोई भी इच्छित व्यवसाय चुन सकता है । उसमें सभी प्रकार की सफलताओं की सम्भावनाएँ लेकर प्रगति-पथ पर निरन्तर आगे भी बढ़ सकता है। कहा जा सकता है कि ऐसा करके शिक्षा अपने मूल प्रयोजन में स्वयंसिद्ध सफलता और सार्थकता प्राप्त कर लेती है । शिक्षा से और चाहिए भी क्या ?
व्यवसाय का अर्थ है— रोज़गार । यों रोज़गार और स्कूल-कॉलेजों की शिक्षा का परस्पर किसी भी प्रकार का सीधा सम्बन्ध नहीं है । अपने चारों ओर निरक्षर भट्टाचार्यों को भी कुशल व्यवसायी बनते देखा-सुना जा सकता है। कई बार तो अनपढ़ अशिक्षित जन शिक्षितों, पढ़े-लिखों से भी कहीं बढ़कर कुशल व्यवसायी प्रमाणित होते देखे जा सकते हैं । फिर भी शिक्षा व्यक्ति के लिए निःसंदेह आवश्यक है, पर केवल आत्म-बोध और अन्तः शक्तियों के जागरण के लिए, न कि व्यवसाय विशेष में प्रवेश पाने के लिए ! इसे दुखद स्थिति ही कहा जायेगा कि आज शिक्षा और व्यवसाय या रोज़गार के प्रश्न को एक साथ जोड़ दिया गया है। शिक्षा को एक प्रकार से रोज़गार या व्यवसाय प्राप्त करने की गारण्टी माना जाने लगा है। यह स्थिति सुखद नहीं कही जा सकती ! इसे दुर्भाग्यपूर्व माना जाना चाहिए !
आज प्रत्येक व्यक्ति जिस किसी भी तरह से शिक्षा के नाम पर कुछ डिप्लोमा – डिग्रियाँ प्राप्त करके अपने-आपको अच्छे-से-अच्छा व्यवसाय या रोज़गार पाने का अधिकारी मानने लगता है। अधिकांश माता-पिता भी बच्चों को स्कूल-कॉलेज में इसी इच्छा से भेजते या भेजना चाहते हैं कि वह कोई अच्छा-सा रोज़गार पा जायेगा। यही वह मानसिकता है, जिसने आज न केवल शिक्षा के उद्देश्य को ही नष्ट कर दिया है, बल्कि उसे एक प्रकार का व्यवसाय ही बना डाला है। जब शिक्षा-प्राप्ति के साथ व्यावसायिक या रोज़गार प्राप्ति-सम्बन्धी दृष्टि जुड़ ही गयी है, तब क्या अच्छा और उचित न होगा कि वर्तमान शिक्षा-प्रणाली को व्यवसायोन्मुख या रोज़गार – केन्द्रित बनाया जाए ? भारत जैसे अविकसित, निर्धन और बेकारों से सम्पन्न देश में शिक्षा के प्रति दृष्टिकोण व्यवसायोन्मुखी हो जाना बहुत अधिक अस्वाभाविक या असंगत भी नहीं लगता । फिर जिस देश में आम जनों की रोटी, कपड़ा, मकान जैसी प्राथमिक और आवश्यक ज़रूरतें भी पूरी न होती हों; कदम-कदम पर अभाव- अभियोगों से दो-चार होना पड़ रहा हो; महँगाई का निरन्तर विकास और उपभोक्ता वस्तुओं के दाम आकाश को छू रहे हों, वहाँ का खाता-पीता व्यक्ति भी केवल शिक्षा के लिए शिक्षा की बात नहीं सोच सकता। शिक्षाप्राप्ति की प्रेरणा के मूल में व्यावसायिक लाभ की इच्छा रहना स्वाभाविक ही लगता प्रतीत होता है।
राष्ट्रपिता गाँधी ने भारत की अभाव – अभियोग की इस स्थिति को बहुत पहले ही भाँप लिया था। इसी कारण उन्होंने रोज़गारोन्मुख बुनियादी शिक्षा दे पाने वाले स्कूल-कॉलेज खोलने की बात कही थी। इस प्रकार के कुछ स्कूल खुलवाये भी थे। स्वतन्त्रता प्राप्ति के तत्काल बाद देश-विभाजन से पीड़ित शरणार्थियों की रोटी-रोज़ी की व्यवस्था करने के लिए पंजाब आदि प्रान्तों में भारत सरकार ने भी कुछ ऐसे स्कूल चलाये थे, जो शिक्षा के साथ-साथ अनेक प्रकार के व्यवसाय भी सिखाते थे । आशा तो यह थी कि उनका व्यापक विस्तार करके सारे देश की शिक्षा-प्रणाली को पूर्णतया व्यवसायोन्मुख बना दिया जायेगा, परन्तु हुआ विपरीत ही। इस प्रकार के और शिक्षा संस्थान तो क्या खुलते, जो खोले चलाए गए थे,
आज उनका भी कुछ अता-पता बाकी नहीं । अब जो शिक्षा-पद्धति चालू है, वह निश्चय ही अक्षर-ज्ञान या अधिक से अधिक कुछ किताबी विषयों का ज्ञान कराने से अधिक कुछ नहीं कर या सिखा पाती । वह अपनी सामयिक उपयोगिता खो चुकी है । यह बात नहीं कि देश की सरकार और नेता वर्ग इस तथ्य से परिचित ही न हो । सभी स्तर पर लोग बात से भली प्रकार से परिचित हैं। तभी तो समय-समय पर शिक्षा को व्यवसायोन्मुख बनाने की बातें कही जाती हैं। आयोग भी बिठाये जाते हैं, पर परिणाम ? वही ढाक के तीन पात !
कोई भी शिक्षा समय की माँग और आवश्यकता को ध्यान में रखने पर ही सफल सार्थक कही जा सकती है। आज की माँग और आवश्यकता स्पष्ट है कि शिक्षा और व्यवसाय में परस्पर सीधा सम्बन्ध स्थापित किया जाए। यह ठीक है कि सरकार की प्रेरणा से विश्वविद्यालयों में व्यवसायों से सम्बन्धित कुछ विषय निर्धारित किये गये हैं । माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक शिक्षा-स्तर पर भी कुछ ऐसे पाठ्यक्रम नियोजित किये गये हैं, पर उन सबका रुख नौकरी पाना ही अधिक है, जबकि प्रत्येक वर्ष इन विषयों को पढ़कर स्कूलों, कॉलेजों से निकलने वाले हज़ारों-लाखों को सरकार तो क्या सारा देश मिलकर भी नौकरी उपलब्ध नहीं करा सकता। यह भी ठीक है कि तकनीकी, इंजीनियरी आदि शिक्षा देने के लिए सरकार ने कुछ अलग केन्द्र स्थापित किये हैं, पर एक तो ऐसे केन्द्रों की संख्या बहुत कम है, दूसरे स्कूलों-कॉलेजों में दी जाने वाली शिक्षा के साथ इस प्रकार के शिक्षण-प्रशिक्षण का कोई ताल-मेल नहीं बैठता। ऐसी दुविधापूर्ण स्थिति में आवश्यकता इस बात की है कि वर्तमान समूची शिक्षा-प्रणाली के ढाँचे में आमूल-चूल परिवर्तन लाकर प्रारम्भिक शिक्षा से ही बुनियादी और व्यवसायोन्मुख शिक्षा-प्रणाली लागू की जाए। तभी वह वर्तमान आवश्यकता- पूर्ति में सार्थक सहयोग प्रदान कर पाने में समर्थ हो सकेगी, अन्यथा उसकी निरर्थकता का हो-हल्ला मचता ही रहेगा ।
चालू शिक्षा प्रणाली क्योंकि नवयुवक को रोज़गार नहीं दे पाती, अतः वह अपने-आपको भीतर तक खाली-खाली अनुभव करता है । खाली मन भूतों का डेरा कहा जाता है । आज शिक्षित कहा जाने वाला एक बहुत बड़ा वर्ग जो अनेक प्रकार की अराजकताओं में लिप्त है, उसे रोज़गार या व्यवसाय में लगाकर ही दूर किया जा सकता है । बड़े होकर या बी० ए०, एम० ए० पास करके कोई व्यावसायिक प्रशिक्षण पाने की पहले तो मानसिकता बन पाना ही कठिन हुआ करता है, फिर अवसर भी प्रायः व्यतीत हो चुका होता है । इस स्थिति में तो व्यक्ति कार्य ही चाहता है । यदि प्रारम्भिक शिक्षा को ही व्यवसायोन्मुख कर दिया जायेगा, तो शिक्षार्थी के मन-मस्तिष्क का विकास उसी प्रकार की मानसिकता एवं वातावरण में होगा । तब आगे के लिए कोई असुविधा या चिन्ता नहीं रह जायेगी । व्यक्ति स्वयं ही अपने व्यावसायिक लक्ष्यों की उच्चता को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील रहेगा। ऐसा करने पर प्रगति और विकास के लक्ष्य तो प्राप्त हो ही जायेंगे, शिक्षा भी समकालिक सन्दर्भों में सार्थकता – सफलता पा लेगी ।
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