छात्र- असन्तोष की सार्थकता – निरर्थकता
आज केवल भारत ही नहीं, विश्व के कोने-कोने से छात्र- असन्तोष और आन्दोलन के समाचार आते रहते हैं। जब चीन जैसे साम्यवादी देश में छात्र – असन्तोष और आन्दोलन भड़कता है, तो वास्तव में उसका कुछ अर्थ होता है । उसका अर्थ होता है मानव-स्वतंत्रता पर प्रतिबन्ध लगाने वाली व्यवस्था के प्रति विद्रोह, ताकि वह व्यवस्था समाप्त हो सके । हर आदमी को खुली हवा में साँस लेने, अपनी इच्छा का जीवन जीने की स्वतंत्रता मिल सके ! इतना ही नहीं, जब बंगला देश जैसे छोटे और सामान्य देश में छात्र- असन्तोष उठता है, तब भी उसका कुछ अर्थ होता है – राजशाही के व्यवहार के प्रति गुस्सा प्रकट करना, संभव हो सके तो अपने राष्ट्र की व्यवस्था में परिवर्तन लाकर एक अच्छी, एक सन्तुलित व्यवस्था स्थापित करने का प्रयत्न करना ! लेकिन भारत जैसे जनतंत्रीय परम्परा वाले देश में प्रायः हर वर्ष जब कहीं न कहीं छात्र- असन्तोष और आन्दोलन भड़क उठता है, तब वास्तव में किसी के लिए भी यह समझ पाना कठिन होता है कि आखिर उसका मुद्दा क्या है ? है भी कि नहीं ? यदि कहीं कोई मुद्दा है, तो वह अपने आप में कुछ सार्थकता भी रखता है?
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छात्र- असन्तोष और एक आन्दोलन के उदाहरण से ऊपर कही बातों को ठीक से समझा जा सकता है। दिल्ली विश्वविद्यालय ने स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद शायद पहली बार कुछ रुपये परीक्षा-शुल्क बढ़ाने की घोषणा की। सभी जानते हैं कि कमरतोड़ महँगाई के कारण विश्वविद्यालय के हर प्रकार के खर्चे बढ़ गये हैं । विद्यार्थियों के अभिभावकों की तनख्वाहों,. अन्य प्रकार से आय में बढ़ोतरी होने में जमीन-आसमान का अन्तर आ चुका है। छात्र यह भी जानते हैं कि उनका जेब खर्च तथा अन्य खर्चे भी कहीं अधिक बढ़ चुके हैं। वे कैन्टीन में बैठकर सिगरेट-चाय आदि पर अनाप-शनाप खर्चे कर सकते हैं, सिनेमा के महंगे टिकट खरीद सकते हैं, महँगे जूते – कपड़े और फैशन के कपड़े पहन सकते हैं; पर दो-चार रुपये फीस के नाम पर अधिक होने पर, असन्तुष्ट होकर आन्दोलन छेड़ देते हैं ? भारतीय छात्र-असन्तोष के पीछे लगभग इसी प्रकार के अकारण-कारण या अकारथ कारण रहा करते हैं। अब आप ही अनुमान लगा लीजिए कि छात्र – असन्तोष कितना सार्थक या निरर्थक है अथवा हो सकता है ?
हमारे देश के छात्रों ने किसी वास्तविक और सर्वसामान्य से सम्बन्ध रखने वाले राष्ट्रीय मुद्दे को लेकर न तो कभी असन्तोष ही प्रकट किया है, न आन्दोलन ही चलाया है। जीवन के हर क्षेत्र में भ्रष्टाचार का राज है, चारों ओर आम जनता का अनेक प्रकार से शोषण हो रहा है, रिश्वत और काला बाजार गर्म है, रक्षक ही भक्षक बन रहे है, छात्रों के काम आने वाली पुस्तकों-कापियों के दाम आसमान छू रहे हैं । लार्ड मैकाले के युग से चली आ रही शिक्षा और परीक्षा की मशीन ज़ंग लगी और बेकार हो चुकी है, देश-विदेश की अनेक चुनौतियाँ हमारी अस्मिता, राष्ट्रीयता को निगलने के लिए पूरी तरह से मुँह बाए खड़ी हैं; पर क्या भारतीय छात्रों ने इन समस्त व्यवस्थागत बुराइयों के प्रति असन्तोष प्रकट किया है? कभी कोई आन्दोलन चलाया है? मुझे नहीं याद पड़ता कि कभी छात्रों ने इस प्रकार का कोई कार्य हाथ में लिया हो ! फिर भी हमारा छात्र वर्ग असन्तुष्ट और आन्दोलन-रत रहकर तोड़-फोड़ तो करता ही रहता है ! परन्तु उस सबको सार्थक कैसे कहा जा सकता है ?
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यहाँ छात्र इसलिए आन्दोलन चलाते हैं कि उन्हें सस्ते दर पर सिनेमा – टिकट मिलने चाहिएँ ! मैं पूछता हूँ कि चाय – सिगरेट के अनाप-शनाप खर्चों पर सैकड़ों खर्च करने वालों को यदि सस्ते सिनेमा टिकट मिलने चाहिएं, तो झल्ली ढोने वाले गरीबों, मज़दूरों-किसानों को क्यों नहीं मिलने चाहिएं ? यहाँ छात्र- असन्तोष तब भड़कता है जब अनुशासनहीन और गड़बड़ करने वालों के विरुद्ध कोई अनुशासनात्मक कार्यवाही की जाती है । परीक्षा में नकल करने वालों की रक्षा के लिए यहाँ छात्र असन्तोष जताकर बसें वाहन जला या तोड़-फोड़ — देते हैं । यहाँ सभी को पास करने, परीक्षा में नकल करने देने की नाजायज़ माँग मनवाने के लिए छात्र-आन्दोलन चलाये जाते हैं ! छात्र- यूनियनें बनती हैं। उनके चुनाव होते हैं । चुनावों पर लाखों रुपया फूँक दिया जाता है ! मार-पीट, छुरेबाजी, गोली-वारी और हत्या आदि सब-कुछ होता है । परन्तु इस प्रकार की अराजकता का विरोध करने के लिए छात्र-असन्तोष कहीं कभी नहीं दिखाई देता ! बेचारे अध्यापकों के विरुद्ध सच्चे झूठे इलज़ाम लगाकर बन्द किये जाते हैं, पर लड़कियों से छेड़खानी करने वालों, कक्षाओं- परीक्षाओं में गड़बड़ फैलाने वाले गुण्डा तत्त्वों के विरुद्ध कभी चूँ तक नहीं किया जाता ! गुण्डा तत्त्वों के विरुद्ध यदि कार्यवाही का साहस कभी किया भी गया, तो राजनीतिक दबावों के कारण उनका परिणाम कभी कुछ नहीं निकला! विद्यालयों में छात्र- यूनियनें बनती हैं और उम्र किस्म के छात्र उन पर हावी हो जाते हैं – किसलिए ? यूनियनों के बड़े-बड़े फण्ड मनचाहे ढंग से खर्च करने के लिए! इस प्रकार के कार्यों के विरुद्ध कभी छात्र- असन्तोष सामने नहीं आता ! आप ही अनुमान लगा लीजिए कि भारतीय छात्र आन्दोलन कितने सार्थक और कितने निरर्थक हुआ करते हैं ?
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कहा जाता है कि छात्र-असन्तोष के मूल में भविष्य में होने वाली बेकारी का भाव रहता है। दूसरे शब्दों में पढ़-लिखकर डिग्रियाँ तो मिल जाती है, पर नौकरियाँ या काम-धाम नहीं मिल पाता । इस कारण छात्र असन्तुष्ट रहते हैं । उनका आक्रोश तरह-तरह के आन्दोलनों के रूप में प्रकट होता रहता है। वर्तमान शिक्षा प्रणाली से भी वे सन्तुष्ट नहीं, अतः आन्दोलनों का रास्ता पकड़ तोड़-फोड़ करते रहते हैं । लेकिन जैसा कि हम पहले भी कह आये हैं, बातों को स्पष्ट मुद्दा बनाकर कभी छात्र- असन्तोष सामने क्यों नहीं आ पाया ? ‘इसे हम वास्तविक नेतृत्व का अभाव और स्वार्थी राजनीतिक दलों के निरर्थक हस्तक्षेप का परिणाम कह सकते हैं। राजनीतिक दल केवल वोट चाहते हैं, मुद्दों की राजनीति और समाधान नहीं । छात्र-असन्तोष सार्थक तभी हो सकता है, जब वास्तविक मुद्दों को लेकर संघर्ष करने वाला नेतृत्व उसके अपने भीतर से पैदा हो। राजनीतिक दलों द्वारा ऊपर से आरोपित किया गया – न हो ! जहाँ कहीं भी विशेष मुद्दों को लेकर छात्रों के भीतर से नेतृत्व उभरा, वहाँ उभरने वाले असन्तोष को सार्थक दिशा भी मिली ! असम का गण परिषद् के माध्यम से चलाया गया छात्र आन्दोलन अपनी सार्थकता का स्पष्ट उदाहरण है । अब जो बोड़ो छात्र आन्दोलन चल रहा है, वह मुद्दे को लेकर ही चलाया जा रहा है। सार्थकता -निरर्थकता का निर्णय तो इतिहास करेगा ! स्वर्गीय जयप्रकाश नारायण ने भी छात्र- असन्तोष को सार्थक दिशा देने का प्रयत्न किया था। यदि वे जीते रहते, तो सम्भव है उनके नेतृत्व में छात्र वर्ग कुछ कर दिखाता !
जो हो, भारत में छात्र असन्तुष्ट ही असन्तुष्ट है । उसमें साहस और ऊर्जा भी है, यदि नहीं है तो अपने भीतर से उपजी नेतृत्व शक्ति। जिस दिन ऐसा हो जायेगा, उसी दिन उसकी वास्तविक सार्थकता अंकित की जा सकेगी। अभी तक तो ऊपर दिये सार्थकता के इक्के-दुक्के उदाहरण ही सामने आ पाए। उन्हें भी ऐतिहासिक महत्त्व के, या आलोक-स्तम्भ बन पाने में समर्थ नहीं कहा जा सकता ! आवश्यकता इस बात की है कि जागरूक छात्र-वर्ग व्यक्तिगत और सामान्य कोटि के स्वार्थों के लिए असन्तुष्ट होकर आन्दोलन का रास्ता न अपनाएँ। वे अपने वर्ग, समाज, देश और राष्ट्र की वास्तविक समस्याओं को जानें समझें । उन्हें लेकर असन्तुष्ट आन्दोलन अपने नेतृत्व और अपनी समझ से चलाएँ । उनके सफल समाधान के साथ ही छात्रवर्ग का हित भी जुड़ा हुआ है। हवा में निरर्थक लाठियाँ भाँजते रहने से कुछ होने-जाने वाला नहीं, यह बात अभी तक के अनुभवों से स्पष्ट है ।
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