विद्यार्थी और चुनाव
लोकतंत्र में चुनाव का बहुत महत्त्व हुआ करता है । इनके द्वारा आम जनता जन-हित का काम न करने वाली भ्रष्ट सरकारों को एक ही दिन में बदल सकती है । मनचाहे दलों और लोगों को सरकार बनाने का आदेश दे सकती है ! यह तो हुई उन चुनावों की बात जो केन्द्र या प्रान्तों में संसद और विधान सभाएँ बनाने, सरकारें चलाने के लिए प्रायः पाँच वर्षों के बाद हुआ करते हैं ! लेकिन हम यहाँ जिन चुनावों की चर्चा करने जा रहे हैं, उनका सम्बन्ध विद्यालयों व विश्वविद्यालयों में शिक्षा पाने वाले विद्यार्थियों से है । विद्यालयों- विश्वविद्यालयों में हर शिक्षा – सत्र के आरम्भ में चुनाव कराने, छात्र-परिषद बनाने की परम्परा का आरम्भ स्वतंत्रता-प्राप्ति के कुछ वर्ष बाद से ही हो गया था ! अब तो यह एक नियम और आदत बन गया है ।
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विद्यालयों आदि में चुनाव कराने की आखिर आवश्यकता और उद्देश्य क्या है ? प्रश्न स्वाभाविक है और इसका उत्तर भी बड़े सहज ढंग से दिया जाता है । वह यह कि एक तो यह जनतंत्र का युग है, जिसमें देश और संसार की राजनीति से कोई भी अलग नहीं रह सकता और चुनाव एक प्रकार की राजनीतिक प्रक्रिया ही है। दूसरे, आज के विद्यार्थियों ने ही कल के राजनेता बनकर चुनाव लड़ने हैं । जनतंत्र की व्यवस्था को चलाना और आगे बढ़ाना है। सो जो आगे चल कर करना ज़रूरी है, उसका अभ्यास अभी से शुरू हो जाए, तो क्या बुरा है ? वास्तव में बुरा या बुराई कुछ भी नहीं । हाँ, बुराई उस ढंग में अवश्य है कि जो अपने चुनावों के अवसरों पर विद्यार्थी जान-बूझकर या गलती से अपना लिया करते हैं। यदि उस ढंग का सुधार कर, जनतंत्र में एक शिक्षा के अंग के रुप में चुनावों की प्रक्रिया को सहज भाव से लिया जाए, तो अच्छा-ही- अच्छा ।
अब देखें, चुनाव के अवसर पर विद्यार्थी जाने-अनजाने किस प्रकार के हथकण्डे अपनाया करते हैं। सबसे पहली बात तो यह है कि विद्यालयों में होने वाले छात्रों के चुनाव आजकल छात्रों के न रहकर राजनीतिक दलों के बन गये हैं। राजनीतिक दल विद्यार्थियों के माध्यम से वास्तव में अपनी शक्ति और वोट- संख्या की परीक्षा किया करते है। इसके लिए वे अपने मत या दल के समर्थक छात्रों को चुनकर चुनाव के लिए खड़ा किया करते हैं। दूसरे, राजनीतिक दल अपने छात्रों को चुनाव- आन्दोलन में खर्च करने के लिए काफी पैसा देते हैं । कहां जाता है कि कई बार तो संसद या विधान सभा का चुनाव लड़ने वाले अच्छे-खासे उम्मीदवार द्वारा किये गये खर्च से भी बढ़कर विद्यार्थी राजनीतिक दलों की सहायता से खर्च किया करते हैं ! जब पैसा आता है, तो कई प्रकार के असामाजिक तत्त्व तो आ ही जाते हैं, बुराइयाँ भी आ जाया करती हैं। सिगरेट, शराब, कबाब और कई बार शबाब ।
(सुन्दरता और जवानी) का भी खुलकर प्रयोग होता है । सामना करने वाले अन्य दलों द्वारा समर्पित या स्वतंत्र उम्मीदवार विद्यार्थियों को लोभ-लालच देकर मुकाबले से हट जाने के लिए कहा जाता है । जिसके साथ असामाजिक तत्त्वों का अधिक बल रहता है, वह अक्सर सामने वाले को हट जाने के लिए बाध्य, या धन के बल से बिठा पाने में सफल हो जाता है । छुरे या पिस्तौल, अपहरण आदि के बल पर किसी को रास्ते से हटाने की घटनाएँ भी कई बार सामने आ चुकी हैं। इस प्रकार कहा जा सकता है कि गन्दी और भ्रष्ट राजनीति के प्रवेश के कारण विद्यार्थियों के चुनावों में भी वही सब होने लगा है, आजकल जो कुछ संसद या विधान-सभाओं के चुनावों में हुआ करता है !
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चुनावों के समय विद्यालयों में पढ़ाई की बहुत हानि होती है । कक्षाएँ आरम्भ होते ही विद्यार्थियों की टोलियाँ अपने उम्मीदवार के प्रचार के लिए एक-के-बाद एक कक्षाओं में आने लगती हैं। फलस्वरुप पढ़ा- पढ़ पाना सम्भव नहीं हो पाता ! चुनाव में भाग ले रहे उम्मीदवार तो लगभग पहला पूरा सत्र पढ़ नहीं पाते, उनके प्रचारक भी नहीं पढ़ते, बाकियों को भी नहीं पढ़ने देते ! कई बार ऐसे भी होता है कि जैसे ही प्राध्यापक ने पढ़ाना शुरू किया, बाहर आस-पास नारेबाजी शुरू हो गई और बस, हो ली पढ़ाई ! इस प्रकार पूरा एक सत्र बरबाद | चुनाव जीतने वाले तो बाद में भी कक्षाओं में कभी नहीं आते। पता नहीं वे कैसे परीक्षा देकर पास हो, अगली कक्षाओं में पहुँच जाते हैं । कहा जाता है कि नेतागिरी के दबाव और प्रभाव के कारण उन पर अनिवार्य हाजरियों का बंधन कतई लागू नहीं होता ! हैन बिडम्बना !
कक्षाओं के बाहर के दृश्य भी विद्यार्थी चुनावों के अवसर पर कोई अच्छे नहीं हुआ करते। कक्षा-भवनों के भीतर दीवारों पर, ब्लैक बोर्ड पर, दरवाजों पर उम्मीदवारों के पोस्टर चिपकाकर उन्हें गन्दा कर दिया जाता है। बाहरी दीवारों की हालत भी ऐसी ही होती है । बात केवल पोस्टर चिपकाने तक ही नहीं रहती, काले-पीले रंगों से भी दीवारें पोत दी जाती हैं। विद्यालयों का रंग-रूप तो बिगाड़ ही दिया जाता है, बसों पर भी काले-नीलें रंगों से भीतर-बाहर तरह-तरह के नारे लिखकर उनका रंग-रोगन बेकार कर दिया जाता है । इस प्रकार हर वर्ष बसों पर नया रंग-रोगन कराने में ही लाखों रुपये खर्च हो जाते हैं ! इतना ही नहीं, गलियों-मुहल्लों की दीवारें व सड़कों पर लगे नामपट, विज्ञापन के बड़े-बड़े होमार्डिग तक एकदम पोस्टरों और काले-नीले लेखों से भरकर बिगड़ जाते हैं । कहा जाता है कि इस प्रकार एक छोटे-से चुनाव में धन, समय और श्रम का इतना अधिक अपव्यय एवं दुरुपयोग, हो जाता है हर वर्ष कि उसकी सम्मिलित ऊर्जा से कई कल-कारखाने चलाये जा सकते हैं । जो हो, हर वर्ष चुनावों का यह खर्चीला तमाशा हो रहा है । सभी जानते हैं कि यह अपव्यय और दुरुपयोग है, फिर भी इसे रोकने या सुधारने की परवाह कोई नहीं करता । वास्तव में वोट की राजनीति ने सारा माहौल ही इतना गन्दा और स्वार्थी बना दिया है कि असली उद्देश्य और मुद्दे कंब के भटक चुके हैं। केवल चोंचलेबाजी ही रह गयी है !
जिस दिन चुनाव होता है, उस दिन भी कम हंगामा नहीं रहता। संसद और विधान सभाओं के चुनावों से भी बढ़कर गहमागहमी रहा करती है। मार-पीट हो जाना मामूली बात है । वोट लूटे और फाड़े भी जाते हैं, ग़लत वोट डलवाने की गुंजाइश यद्यपि नहीं रहती । वोटरों को ढोकर लाया- ले जाया भी जाता है ? यानि सभी कुछ संसद आदि के चुनावों जैसा ! बाद में, जब जीते हुए उम्मीदवारों की छात्र यूनियनें बन जाती है, तो माँगें क्या की जाती हैं ? विद्यार्थियों को रियायती दरों पर सिनेमा टिकट दिये जाएँ, परीक्षाओं में नकल करने दी जाए ! परीक्षाएँ नियत समय पर न करके आगे-पीछे की जाएँ — बस, इसी प्रकार की सुविधाएँ माँगी जाती हैं, जिनका वास्तव में विद्यार्थी – जीवन से कोई दूर का भी सम्बन्ध नहीं रहता ! सभी को पास करने की भी माँग की जाती है । आज तक किसी भी छात्र- यूनियन षा छात्र आन्दोलन ने वर्तमान शिक्षा प्रणाली को बदलने की माँग नहीं की। परीक्षा-प्रणाली के सड़े-गले ढाँचे के बदलाव का प्रस्ताव पास नहीं किया । पुस्तकें-कापियाँ आदि उचित दरों पर उपलब्ध करायी जाएँ, इस प्रकार के विषयों को विद्यार्थी चुनावों का मुद्दा कभी भूलकर भी नहीं बनाया जाता। स्पेशल बस सेवा की माँग इसलिए की जाती है कि एक बार जो दो-चार विद्यार्थी बैठ जाएं, वे बाकी किसी विद्यार्थी को भी न चढ़ने दें ! बसों में सिगरेट-शराब पिएं और छात्राओं के साथ छेड़खानी की जा सके। इस प्रकार हर प्रकार की उच्छृंखलता की छूट चाहना और दिलवाना ही विद्यार्थी संघों, उनके चुनावों का मुद्दा बन गया है। कहा जा सकता है कि आज जो दशा सारे देश की है, अन्य राजनीतिक चुनावों की है, वही विद्यार्थी चुनावों की भी है! जब तक राष्ट्रीय चरित्र का उदयं और विकास नहीं होता, यहाँ भी हालत ऐसी ही बनी रहेगी ! सोचने और ध्यान देने की बात है ।
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